Monday, July 26, 2010

Silhouette - I

Khushi - In the sweltering hot Mahnar Summer.

Friday, July 23, 2010

महनारनामा


बिट्टू!! उठेगा नहीं? अबेर हो गया है. गंगाजी जाना नहीं है निहाने के लिए? - दादी मच्छरदानी खोलती जाती है और मुझे उठाने की भी कोशिश करती जाती है. 

मैं अनमने भाव से करवट बदलता हूँ और तकिये के बगल में पड़े मोबाइल में समय देखता हूँ. साढ़े ४ बजे हैं अभी सिर्फ .. सुबह के साढ़े ४. बाहर छत पर धुंधलका अभी भी पसरा हुआ है. 

अब दादी की आवाज़ बगल के कमरे से आ रही है .. वो अब प्रयत्नशील है ख़ुशी और बुन्नु को बिस्तर से बाहर निकालने के लिए. 

कुछ देर बाद मुँह-हाथ धोकर हम सब गंगाजी की दिशा में रवाना होते हैं .. अँधेरा अभी भी पूरी तरह से छंटा नहीं है, पर गंगाजी की तरफ लोग अच्छी-खासी संख्या में मुखातिब हैं. 

पर गंगाजी हैं कि वो अब खुद पहले वाली गंगा नहीं रहीं. जो सड़क हमारे घर से गंगाजी की ओर जाती है उसके गंगाजी वाले सिरे पर पीपल का एक बुढ़ा पेड़ काफी दिनों से खड़ा है. करीब ७-८ साल पहले तक गंगा का विस्तार इस पीपल से मुश्किल से करीब १५-२० मी. की दूरी पर हुआ करता था. पर अब गंगा इस स्थान से करीब ३-साढ़े ३ किलोमीटर की दूरी पर बहती है. पता नहीं यह बदलते हुए मौसम-चक्र का दुष्परिणाम है या गंगा ने मात्र अपना रास्ता बदल लिया है. 

पहले जहाँ गंगा बहती थी, वहाँ अब बरसात को छोड़ बाकी सारे वर्ष खेती होती है. हाँ, बरसात के दिनों में यहाँ भी लबालब पानी भर जाता है .. पानी का इतना भयंकर विस्तार - सोंचकर ही कपकपी सी हो जाती है. पीपल के पेड़ की छांह में बैठे बूढ़े बाबा ना जाने कैसे हमारी बातें सुन लेते हैं और पीपल से कुछ दूर एक हलकी सी ऊँची जगह की ओर इशारा कर खुद-ब-खुद कहते हैं -  जे दिन एतना पानी परतउ कि ई ऊचाई तक छू जेतउ उ दिन समझ ले पटना दू-मंजिला इमारत तक डूब जेतउ. 

गंगाजी में नहाने का कार्यक्रम हर दिन का है. हम रोज़ सुबह ४-साढ़े ४ बजे तड़के उठते हैं और गंगा तक की साढ़े ३ किलोमीटर की यात्रा सम्पन्न करते हैं. छोटा सा दल है हमारा - दादी, छोटा बाबू, मैं, ख़ुशी और बुन्नु .. पहले दो-तीन दिन निशु और नितिन भैया भी साथ थे. हर दिन स्नान के दौरान छोटा बाबू ख़ुशी और बुन्नु को पानी में ले जाकर छोड़ देते हैं.  कहते हैं - जब तक डूबेगा नहीं, हेलना कैसे सीखेगा? और वाकई, ख़ुशी १०-१२ दिनों के अंतराल में  में ही तैरना सिख गयी है .. अब बस आवश्यकता है तो थोड़े-बहुत अभ्यास की. स्कूल खुलते-खुलते आशा है वो एक ठीक-ठाक तैराक तो हो ही जायेगी .. स्कूल खुलने में अभी ३ सप्ताह  बाकी भी तो हैं ..

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दूकान से घर और घर से दूकान करते-करते महनार में दिन किस तेज़ी से बीतते हैं  पता ही नहीं चलता. एक दोपहर जब मैं  और ख़ुशी दूकान पर अकेले हैं तो हम जोड़ने की कोशिश करते हैं कि कितनी सारी ऐसी दवाइयां हैं जिनका स्थान हमें पता है और जिन्हें हम छोटा बाबु की अनुपस्थिति में भी बेच सकते हैं .. जोड़-जाड़ के ब-मुश्किल २५-३० माल ऐसा निकलता है जिसके स्थान के बारे में हमारी जानकारी पुख्ता है. अगर इस बात को ध्यान में रखा जाए कि मैं साल में मुश्किल से दो-चार दिन ही महनार आ पाता हूँ और ख़ुशी भी पढ़ाई के लिए पटना में ही रहती है, यह अंक भी शायद एक बड़ी उपलब्धि ही है. 

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घर से जाते-आते रास्ते में लगभग हर कोई मुझे यहाँ पहचानता है .. मगर मैं लगभग किसी को भी ढंग से नहीं जानता. लोग हैं जो अनायास ही पूछ बैठते हैं - त? महनार अब अईसे ही चलतउ? ज़िन्दगी बम्बैय्ये में गुजार देना है या घर भी कभी आना है?

एक शाम लावापुर वाले दादाजी घर आते हैं, मुझे देखकर कहते हैं - महनार आते रहना. ज़िन्दगी में कुछ रखा है? कुछ नहीं रखा. 

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महनार से निकलने वाले दिन तय होता है कि मैं छोटा बाबू के साथ ही मोटर-साइकल पर पटना चला जाऊंगा. दोपहर तक हमें निकलने की बात है, मगर दूकान बंद करते-करते और निकलते-निकलते रात के नौ हो जाते हैं. रास्ता लगभग सुनसान ही है .. बस बीच-बीच में दो-चार बाज़ार हैं जहाँ अभी भी चहल-पहल है. इसके सिवा मौसम लगन का है, इसलिए कहीं-कहीं इक्का-दुक्का बारातें भी मिल जाती हैं .. इसके सिवा हर तरफ अँधेरा पसरा हुआ है और ख़ामोशी है जिसे बस हमारी बातचीत और गाड़ी की आवाज़ ही भंग कर रही है. छोटा बाबू मोटर-साइकल काफी संभल कर चलाते हैं - ३०-३५ की स्पीड से गाड़ी कभी ऊपर नहीं जाती .. मैं बार-बार कोशिश करता हूँ कि हाथ की मुट्ठियों में महनार को जकड़ लूं  मगर महनार है की ३०-३५ की स्पीड से ही सही मुट्ठियों में कैद रेत की मानिंद फिसलता चला जाता है .. अब फिर से एक लम्बा अंतराल होगा ८-१० महीने का इसके पहले की मैं वापस महनार आ सकूँ ..

छद्म किसान का असल परिवार - मैं, ख़ुशी, दादी और बुन्नु - गंगाजी के रास्ते में - पृष्ठभूमि में पसरी सारी ज़मीन कभी गंगा का अभिन्न अंग हुआ करती थी. आज भी बरसात के मौसम में यह हिस्सा पानी से लबालब भरा होता है.


मैंने हल भी चलाया - ज़िन्दगी में पहली बार.


बुन्नु बाबू की ख़ुशी तो देखिये - हल क्या जोत लिया मानो दुनिया की सारी खुशियाँ इनके झोले में आ गयीं.


दादी और मैं - गंगा स्नान के बाद गंगा को पूजते हुए.

P S - ये सारे घटनाक्रम जून, २०१० के प्रथम दो सप्ताह के हैं. काफ़ी दिनों से यह पोस्ट लिख रखा था, पर लैपटॉप के अभाव में तस्वीरें मोबाइल से लैपटॉप पर ट्रांसफर नहीं हो पायीं थीं. 

Sunday, July 4, 2010

The Power of Ideas.


It is still not long back that a MAN rose. Although he was born near the Western coast of the present day India, he found his purpose in life in a land on the opposite end of the Indian Ocean. It so happened that one fine day he was travelling in a first class railway compartment with a valid first class railway ticket. However, since he was a black and the compartment was apparently reserved only for the white masters, he was asked to move to the third class compartment. Strangely enough, he refused and had to be forcefully thrown out of the compartment.

The far-off land was South Africa. And the man was a young barrister by the name of Mohandas Karamchand Gandhi.

Now, incidents like this must have had been a daily affair all over the slave-world in the times when colonialism was the order of the day. Hundreds of people must have been thrown out of their compartments in a like-wise fashion. A few were men-enough to rise against the atrocity and claim their rightful place in the order of the humans. One of them was Mohandas.

The resources, if any, that he had to support himself and rely upon during his initial period of struggle were scanty. And the enemy that he was daring to stand up against was an empire so large that the sun never set completely on it. However, Mohandas had an idea that he wanted to implement, and he had so much faith in that idea of his that he was ready to work upon it, gradually evolve it and, if necessary lay down his life in order to prove it. The idea was Non-Violence and Satyagrah.

All that he had to say to his fellow countrymen was - "Speak truth. Be non-violent. Koi agar tumhe ek gaal pe thappar maare to dusara gaal aage kar do. Maar khao, itni adhik aur itni nirlajjata se maar khaao ki ek din maarne waala maarte-maarte thak jaaye aur wapas jahan se aaya tha wahin chala jaaye."

Weird, crazy and a laughable idea indeed. I wonder how he even dared to utter this idea in front of the public in general. Was he not afraid of being branded as a madman and being laughed at?

Whatever! The struggle began. The team started getting built up slowly. Over a period of time, the movement caught fire. The idea worked. And on 15th of August, 1947, a new star arose on the horizon. That star was India. Gandhi had achieved mostly what he had set out to achieve. He had made a land as unique as India all the more unique. While all the other nations were getting independence by violent means, we were the only one to get it mostly by a peaceful and non-violent method. And in the process, he himself had graduated from being just Mohandas Karamchand Gandhi to Gandhi and then to Mahatma and Bapu. By the time the nation got independence, Mohandas was no longer important. It was Gandhi all over.

With the support and deadly determination of those who believed in them, it has always been IDEAS that have evolved the world. And the strange-most thing that seems to be with these world-changing ideas is that they always come in packages so simple that they, in most of the cases, if not all, tend to get overlooked. In their early stages, they are so weird and laughable to look at that it needs immense courage and belief on the part of those who believe in them to hold their ground. And this happens to be the case with all the walks of life – be it Science - where a few crazy scientists dared to go against the Church and said that it is the Earth that goes round the Sun and not the other way round and were in fact hanged till death for their courage to go against the institution that claimed to represent the God himself; or be it Business – where Muhammad Yunus comes from Bangladesh, believes earnestly that poor can be bankable, works on the idea and proves it to the world that the big multinational banking giants are in fact highly mistaken when they say that poor are not credit worthy.

Most of us must have had some crazy idea or the other at some stage in our life. And most of us decided to give that crazy idea a cold shoulder and either ignore it completely or leave it to be worked upon at some later stage in life. It is sad - the way the ideas get overlooked because of the lack of courage on the part of the humans. And it is important that they be worked upon. After all those who live in the memory of the human race long after they are gone are those who, against all odds, believed in their ideas and dared to implement it. The rest, once they die, get lost as if they never existed at all.

The history of the world is truly the history of a few men who had faith in their ideas.

 Believe in your IDEAS. In most of the cases, they are worth dying for.