Saturday, June 26, 2010

माँ को गए ३ वर्ष हो गए.



पता नहीं ये सब लिखना भी चाहिए या नहीं, पर काफी दिनों से इन बातों को लिखना चाह रहा हूँ. इस लेख के दो भाग हैं - पहला वो जो थोड़ी बहुत आपबीती है और दूसरा वो जो उन मित्रों के प्रति धन्यवाद व्यक्त करता है जो जरूरत के वक़्त मेरे साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े रहे.  

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वो दिन बुरे थे .. काफी बुरे. 

जब घर से अनिल छोटा बाबू का फ़ोन आया तो मैं करिअर लौन्चर में क्लास कर रहा था. मुझसे कहा गया कि माँ की तबियत काफी बिगड़ गयी है और उसे बम्बई में टाटा मेमोरिअल अस्पताल में जांच के लिए ले जाना है. माँ काफी सालों से हार्ट-पेशेंट थी - मुझसे कहा गया कि वही बिमारी सहसा काफी बिगड़ गयी है. 

शाम को इंटरनेट कैफे में जब टाटा मेमोरिअल के वेबसाइट पर उनका पता, इत्यादि देख रहा था तो काफी कोशिशों के बावजूद ह्रदय रोग विभाग के बारे में कुछ भी पता नहीं चला. हाँ, कैंसर के ऊपर भरी-पूरी जानकारी थी. मुझे याद है मैं काफी झुंझला गया था उस दिन इंटरनेट कैफे मैं - टाटा का मुंबई स्थित अस्पताल और वेबसाइट पूरी तरह से अपडेटेड भी नहीं है. बाकी देश का हाल बुरा होने में कोई अचंभित कर देने वाली बात तो होनी ही नहीं चाहिए.

ख़ैर, मैं पुणे में था और मुंबई जाकर मुझे एक होटल बुक करके रखना था. माँ चलने-फिरने में असमर्थ है, इसलिए प्रयास यही करना था कि कमरा ग्राउंड फ्लोर पर ही हो. मुंबई मैं उस समय गौरव भैया के अलावा कोई भी ठौर-ठिकाना था नहीं, इसलिए प्रथम दिन उन्ही के यहाँ पोवई में जाकर रुका. गौरव भैया से मेरी जान-पहचान १०-१५ दिनों से अधिक की नहीं थी. पुणे में जिस पी.जी. में मैंने  पहली बार डेरा जमाया था, गौरव भैया उसी पी.जी. में रह रहे थे. सोंचता हूँ कुछ लोग कितने कम दिनों के साथ के बावजूद ज़िन्दगी भर के लिए मित्र बन जाते हैं, जबकि अन्य लोगों से कितने भी दिनों की जान-पहचान क्यों ना हो जाए, मित्रता तो हो ही नहीं सकती. 

अगले दिन अस्पताल के रास्ते में मोबाइल बस में ही कहीं गिर गया. दौड़ कर वापस बस में चढ़कर उसे खोजने की कोशिश भी की, पर मुंबई की भीड़ भरी बस में उसे नहीं मिलना था, सो नहीं मिला. सारे नंबर गायब. यह तो अच्छा था कि गौरव भैया का नंबर एहतियात के तौर पर जेब में अलग से लिखकर रख लिया था. हमारे स्कूल के बैच की एक कॉमन इ-मेल आई-डी उन दिनों रेडिफ पर हुआ करती थी. गौरव भैया को फ़ोन करके कहा कि उसपर मेरी तरफ से एक मेल डालें और लिखें कि मुझे ब्रजेश के नंबर की सख्त आवश्यकता है - अगले दस पंद्रह मिनटों के अन्दर. थोड़ी ही देर में ब्रजेश के नंबर से सम्बंधित कम से कम पांच मेल इन-बोक्स में थे. ब्रजेश को फ़ोन मिलाया और फिर उससे ही छोटा बाबू का नंबर लिया. 

इस बीच जब यह सब हो रहा था, मैं अस्पताल के काउंटर पर जाकर ह्रदय-विभाग के बारे में पूछताछ कर रहा था. पर जैसे ही मैंने पूछा, वहाँ खड़ी नर्स ने मुझे इस कदर घुर कर देखा मानो मैं कोई अजूबा हूँ. कहती है - आपको पता नहीं ये कैंसर का अस्पताल है, हार्ट का नहीं? पूरी दुनिया ये जानती है. 

मुझे काटो तो खून नहीं. भागा-भागा बाहर गया. बूथ से छोटा बाबू का नंबर डायल किया तो उधर ने बोला गया - जितना बोला गया है, उतना करो. ज्यादा सोंचने की आवश्यकता नहीं है. सोंचने के लिए बाकी लोग हैं घर पर. 

कोई कुछ भी खुल कर बताने को तैयार नहीं था. और मैं परेशान था - 'माँ को कैंसर कैसे हो सकता है. पूरे परिवार में बस एक बूढी दादी ही हैं जो बीड़ी पीया करती थीं, वो भी उन्हें छोड़े ज़माना होने को आया. बाकी किसी का भी बीड़ी-सिगरेट से दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं. और मुजफ्फरपुर में तो कोई अधिक प्रदुषण भी नहीं है.' वो तो जब बाद में माँ को लेकर अस्पताल में दाखिल हुआ तो देखा की यहाँ तो भई छः महीने - साल भर के बच्चे भी इलाज करवा रहे हैं. असल में बात ये है ये यह रोग किस कारण वश होता है, यह किसी को भी नहीं पता. धुम्रपान करने से इसके होने की संभावना बढ़ अवश्य जाती है, पर यह कोई पत्थर पर लिखी लकीर नहीं कि जो धुम्रपान करता है, उसे कैंसर हो ही जाएगा, या कि जो नहीं करता वह इससे बचा रहेगा. अगर इस बात को मद्देनज़र रखा जाए तो विश्व की दो सबसे भयंकर बीमारियों - कैंसर और एड्स - में से कैंसर अधिक भयावह मालूम होती है. एड्स का तो कारण लगभग सभी को पता है, इसलिए उससे बचाव भी किया जा सकता है, कैंसर से बचने का कोई उपाय नहीं. 

ख़ैर अब बात जरूरत से अधिक गंभीर मालूम हो रही थी. काफी खोज-बिन के बाद जाकर एक होटल मिला जिसमें ग्राउंड-फ्लोर पर कमरे थे. काफी छोटे-छोटे, अँधेरे और तंग. किसी पेशेंट के ठहरने लायक तो एकदम भी नहीं. पर डूबते को तो तिनके का सहारा भी काफी लगता है. कुछ और उपाय ना देखकर मैंने उसे ही बुक कर लिया - 'एक बार टिकने को कोई जगह हो जाए, बाकी बाद में देखी जायेगी.' 

इस अस्पताल के साथ कुछ बुनियादी दिक्कतें हैं - अस्पताल मुंबई के बीचों-बीच लोअर-परेल में स्थित है. ज़मीन और रियल स्टेट का भाव यहाँ इस प्रकार आसमान छूता है कि ग्राउंड-फ्लोर पर दुकानें बनाना अधिक लाभदायक साबित होता है. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हमारे २२-२५ दिनों के स्टे के बावजूद हमें कोई और होटल ऐसा नहीं मिला जिसमें ग्राउंड-फ्लोर पर भी कमरें हों. और बात यहीं तक सिमित होकर रह जाती तो फिर भी ठीक था, पर भैय्या ये तो मुंबई सहरिया ठहरी - मायानगरी. लोअर परेल में ही नहीं, मुंबई के लगभग सारे छोटे-बड़े होटलों में धंधे चलते हैं. और धंधे भी ऐसे कि होटल वाले मरीजों तक की परेशानियों को समझने की ज़रुरत नहीं समझते. लगभग हर दिन ही हमारे बगल के कमरे में ठहरे नेपाली मरीज़ों को सुबह-सुबह कमरा खाली करना पड़ता था. दिन भर बेचारे अस्पताल में गुजारते, और फिर रात को अपने कमरे में आकर टिकते. तिसपर बात ये कि भाड़ा भी होटल वाले को २४ घंटे का चाहिए. इंसान जब तक अपने पैरों पे खड़ा है, तभी तक ठीक है. साला जिस दिन थोड़ा सा भी लड़खड़ाये, भेड़िये भरे परे हैं हर ओर इंसानी शक्लों में - नोंच-नोंच कर खा जाने को तत्पर.

शाम की ट्रेन से माँ आई. साथ में पापा और छोटे मामाजी थे. मैं स्टेशन मास्टर से व्हील-चेयर लेकर प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार कर रहा था. माँ को उसपर बैठाया और टैक्सी ली. माँ काफी कमज़ोर हो गयी थी. बोलने की भी शक्ति नहीं थी. अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैं घर से लौटा था. कितने अच्छे से हमने घर को दिवाली में मिलकर सजाया था. कैम्पस में ही सही, पर शाम को माँ के साथ टहलने भी गया था. माँ को खांसी थी, नोर्मल दवाएं जो उसमें चलती है, चल रही थी. बात इतनी तेज़ी से बिगड़ी है, देखकर भी विश्वास नहीं हो रहा था. और पापा - वो भी तो ऐसे दिख रहे थे मानों कई दिनों से ठीक से सोये भी ना हों. जो भी बातें हुयीं, मुख्यतः मामाजी से ही हुयीं. माँ बात करने के लायक नहीं थी और पापा से क्या बात करूँ - और किस तरह - मेरी समझ के परे था. 

इलाज़ जो चलना था, चला. जो-जो टेस्ट डॉक्टर ने कहा, कराया गया. इस देश में जनसंख्या इतनी अधिक है और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ें इतनी कम कि रिपोर्ट आते-आते ही सप्ताह भर गुज़र गया. इस बीच डॉक्टर कोई भी दवाई चलाने से सख्त इनकार कर रहा था. कहता था - 'जब बिमारी ही नहीं पता, तो दवा क्या चलायें.'

करीब दो-तीन महीने बाद जब लैंस आर्मस्ट्रोंग की किताब 'इट्स नॉट एबाउट दा बाइक: माई जर्नी बैक तो लाईफ' पढ़ी तो उसमें सन्दर्भ था - लैंस अपने रोग की जांच परताल कराने किसी छोटे से शहर में जाता है - फोर व्हीलर से - सवेरे अस्पताल में दाखिल होता है और शाम तक सारी रिपोर्ट उसके हाथ में होती है. भारत आर्थिक स्थिति के तौर पर कहीं भी क्यों ना पहुँच गया हो, ज़मीनी सच्चाई तो यही है कि हमारे यहाँ बेसिक नेसेसिटिज की भारी कमी है. भाजपा का 'इंडिया-शाइनिंग' कैम्पेन कितना खाली और अर्थहीन था, यह वही समझ सकता है जो रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए आज भी दर-दर भटकने को बाध्य है. कोई आश्चर्य नहीं कि जनता से पूर्ण-रूपेण कटी सरकार और ए.सी. लगे दफ्तरों में बैठे उनके पोलिसी-मेकर्स के द्वारा बनायी गयी दलील जनता के गले नहीं उतरी और भाजपा को देश की तमाम आर्थिक उपलब्धियों के बावजूद मुँह की खानी पड़ी. 

रिपोर्ट को लेकर डॉक्टर से मिला गया. देखकर डॉक्टर कहता है - 'फोर्थ स्टेज है. अधिक से अधिक डेढ़ साल और.' माँ को अभी तक यह पता नहीं था उसे क्या बिमारी है. उस दिन जब पता चला तो मुझसे पूछती है - 'तुमको पता था ना?' मैं क्या बोलता? अभी भी तो उसे अर्ध-सत्य ही बताया गया था. बताया गया था - 'बिमारी फर्स्ट स्टेज में है. इतने बड़े अस्पताल में इतनी दूर से आयें हैं. ठीक तो होना ही है.' इंसान भी ना - अजीब प्राणी है. थोड़ी सी दिलासा देने के लिए कितनी बड़ी बात छुपा जाता है. और माँ - वो भी कितनी भोली थी. हम झूठ बोलते रहे और वो हमारी झूठी बातों को सुनकर बच जाने के सपने देखती रही. लगभग ३ महीनों के बाद जब फरवरी में हम दुबारा आये थे उसे लेकर चेक-अप के लिए तब जाकर उसे ज्ञात हुआ था कि असली स्थिति क्या है. अजीब बात यह है कि बीच में उसकी तबियत काफी हद तक संभल गयी थी. फरवरी में जब आई थी, थोड़ा बहुत चल-फिर भी रही थी. कोशिश करती थी कि व्हील-चेयर पे ना ही बैठे. आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, पर लम्बी दूरियाँ खुद से तय कर लेती थी. पर फरवरी में चेक-अप के बाद जब हमने डॉक्टर से पूछा कि दुबारा कब आना है, उसने हमीं से पलटकर पूछा था - 'कब आना चाहते हैं?' शायद वह समझ चुका था कि ये सुधार वास्तव में कोई सुधार है ही नहीं.

माँ ३० जून, २००७ को शाम के लगभग साढ़े ५ बजे के आस पास चली गयी. मैं कॉलेज का लगभग एक पूरा सेमेस्टर कॉलेज से गायब था. इसलिए यह जानते हुए भी कि बात कभी भी बिगड़ सकती है, १६ जून को मुझे वापस पुणे की ट्रेन से रवाना कर दिया गया था. ३० जून को माँ की तबियत पटना में लगातार बन-बिगड़ रही थी. मैं लगातार घर से फोन पर बना रहा था. साढ़े ५ बजे के आस-पास बोला जाता है कि जैसे भी बन पड़े, घर आ जाओ. जेनरल की टिकट लेकर ही गाड़ी के स्लीपर कोच में सवार होता हूँ. अगले दिन गाड़ी वर्धा में रुकती है तो मोबाइल में कुछ सिग्नल आता है. घर पर फ़ोन करता हूँ तो पापा बोलते हैं माँ को महनार ले जाया जा रहा है. अटपटा सा है कुछ. 'इतनी ख़राब हालत में महनार क्यों ले जा रहे हैं?' - मैं पूछता हूँ तो पापा कुछ बोलते नहीं. छोटे दादाजी का थोड़ी देर में फोन आता है तो असल बात पता चलती है. दिन के लगभग साढ़े ८, ९ के करीब हो रहे हैं. माँ को गए ऑलरेडी तक़रीबन १५-साढ़े १५ घंटे हो चुके हैं.

उधर सौरभ को तो कुछ भी पता नहीं. उससे अभी तक सारी बातें गुप्त रखी गयीं हैं - यह बोलकर कि मेडिकल की पढ़ाई भारी होती है. बच्चा वहाँ अकेला है, पता चलने पर रह भी पायेगा या नहीं. वह बस फरवरी में मुंबई आया था माँ से मिलने और फिर २८ जून को माँ ने उससे लगभग ४५ मी. बातें की थी फोने पे - समझाया था काफी उसे. सौरभ को खबर होने में अभी भी शायद शाम तक का वक्त है.

माँ को गए अब तीन वर्ष होने को आये हैं. ३० जून को उसके बिना तीन वर्ष पूरे हो जायेंगे. बिमारी के दौरान काफी लोगों के सही चेहरे सामने आये. कुछ लोग साबुत पलट गए, तो कुछ ऐसे भी रहे जो तत्परता से हमलोगों के साथ कायम रहे. इंसान की परख तो भई बुरे वक़्त में ही होती है. आसमाँ जब साफ हो तो संग हर कोई चलता है, पर साथ जो हो बारिश में भी, ऐसे मुट्ठी भर लोग ही होते हैं. 

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घर-परिवार की तो बात ही अलग होती है, विद्यापीठ के दोस्तों ने और गौरव भैया ने भी काफी साथ निभाया उन दिनों. २-४ ही लोग थे उस वक़्त जो ऑलरेडी जॉब में आ चुके थे. माँ को पहली बार जब पटना पहुँचा कर पुणे लौटा तो सोंचा था कि आखिरी साल का सारा खर्च खुद से निकालना है, घर से एक पैसा भी नहीं लेना. लोगों को मेल किया तो बिना कोई नौकरी पास में रहे भी ९०,००० चंद दिनों के भीतर जमा हो गए. सोंचता हूँ - पता नहीं अगर विद्यापीठ के अलावा बाकी किसी स्कूल से पढाई की होती तो ये संभव हो पाता क्या? विद्यापीठ में गुजारे वो ९ वर्ष अपने-आप में एक दूसरी ज़िन्दगी है, और विद्यापीठ का कर्ज किस भाँती चुका पाऊंगा यह मुझे पता नहीं. और लोग हैं, जो अभी भी उनका अकाउंट नंबर मांगो पैसे लौटने के लिए तो बोलते हैं - 'बहुत पैसा हो गया है तेरे पास? भेज दूंगा नंबर.' और नंबर है जो आता ही नहीं. 

विद्यापीठ का यह सहारा एक बहुत बड़ी ताकत है. अभी कुछ दिनों पहले एक और मित्र की माँ की तबियत बिगड़ी थी, दिल्ली में इलाज चल रहा था. और लोग एक बार फिर से उठ खड़े हुए थे मदद के लिए. उसकी माँ की तबियत अब अच्छी है.

आशा करता हूँ कि विद्यापीठ के द्वारा प्रदान की गयी यह एकता ता-उम्र कायम रहेगी.




सारी तस्वीरें बोस्की दीदी के सौजन्य से.

Tuesday, June 22, 2010

विद्यापीठ - मार की वह शाम.


बचपन से ही मैं काफी शांत स्वभाव का बालक रहा हूँ. यही कारण रहा कि ज़िन्दगी में कभी अधिक मार-पिटाई नहीं खाई. माँ और पापा की भी कभी हाथ उठाने की आदत थी नहीं, इसलिए भी शायद मार खाने से घर पर हमेशा बचा रहा. पापा से तो एक बार फिर भी याद है कि एक थप्पर खाया था. कारण था - वो मुझे, जब मैं कक्षा ३ में था, गणित का एक प्रश्न काफी देर से समझा रहे थे, और मैं था कि समझने का नाम ही ना ले रहा था. पर माँ से तो पक्का याद है कि कभी भी मार नहीं खाई - वो थी भी तो काफी शांतिप्रिया, कम और काफी समझ-बुझ कर बोलने वाली महिला. इसी कारण वश उस कब्रिस्तान भ्रमण की घटना (इसपर फिर कभी) के बाद भी, जब बोस्की दीदी और नितिन भैया को मार पर रही थी, मुझे माँ ने एकांत में शांत भाव से  नसीहतें भर दे कर बख्श दिया था.

बचपन का अधिकतर भाग होस्टल में ही गुजरा. ताबड़तोड़ मार भी वहाँ पड़ती थी बच्चों को गलतियाँ करने पर - ४०० बच्चों की मंडली को काबू में कर पाना कोई आसन काम तो होता नहीं है.  मगर फिर भी ना जाने क्यों वहाँ भी, एक-दो वाकयों को छोड़कर, लगभग साबूत ही बच गया मार खाते-खाते.

पहली बार  मार का जो वाकया याद आता है, वो रिखिया की घटना है. रिखिया देवघर से कुछ दूरी पर यूँ कहिये एक छोटी सी टाउनशिप है. वही क्लास ४ और ५ के बच्चों को ले जाया जाता था एनुअल पिकनिक के लिए. स्कूल रामकृष्ण मिशन का था इसलिए भजन, इत्यादि पर भी जोर काफी रहता था. शाम का वक़्त था, पिकनिक लगभग समाप्त हो चली थी और हमें चलने से पहले कुछ मंत्रोच्चार करना था. बच्चे थे कि सुन ही नहीं रहे थे. फिर क्या था, शक्ति महाराज की छड़ी उठी और कम से कम ४-५ लोग जो सामने दिखे वो उसकी चपेट में आ गए. मैं भी उनमें से एक बदनसीब था.  

ख़ैर! ये तो थी सामूहिक पिटाई में लपेटे में आ जाने वाली बात. असली और ज़िन्दगी की सबसे भयंकर पिटाई सम्बंधित घटना तो शुभंकर महाराज के हाथों सम्पन्न हुई थी. शुभंकर महाराज विद्यापीठ में प्रिंसिपल थे. दिनचर्या स्कूल की कुछ ऐसी थी कि हर शाम को आरती के बाद दो घंटे की स्टडी होती थी - यह वक़्त दिया जाता है स्वाध्याय के लिए. मैं वर्ग ८ में था, मौसम बरसात का था और स्टडी अभी शुरू हुआ ही चाहती थी. बच्चे अपना-अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे. वातावरण में हलचल अभी भी व्याप्त थी, हो-हल्ला हो रहा था. मुझे ना जाने क्या सूझी कि मुँह में उँगलियों को भरकर सिटी मारने की कोशिश करने लगा. शुभंकर महाराज अपने राउंड पर थे और बाई-चांस उनकी नज़र मेरी इस हरकत पर पड़ गयी ..

फिर उसके बाद बाकी क्या बचा था? उनकी छड़ी थी, मेरा शरीर था और स्टडी हौल के सामने पसरा वह करीब १०-१२ मी. लम्बा अहाता था. महाराज अहाते के एक कोने से जो छड़ी बरसाना शुरू करते, तो दूसरे कोने पे ही जाकर थमने का नाम लेते थे. और फिर यही प्रक्रिया अहाते के दूसरे कोने से लेकर पहले कोने तक दोहराई जाती थी. साथ ही साथ वो कहते जाते थे - शिटी मारबे? तोमरा बिबेकानोंदेर छेले! एटा-इ शिखेछो एखाने ए-शे? निर्लोज्जो कोथाकार. एतो-टुकोवो लोज्जा पावो नि?  

सारा स्टडी हौल सहसा पल भर के अन्दर इस प्रकार शांत हो गया था मानो वहाँ कोई हो ही ना. इससे पहले की महाराज मुझे बख्शते, मार खाते-खाते लगभग १५-२० मिनट तो हो ही गए थे. यह बात अलग है कि उस शाम जी.के. की परीक्षा के बाद लौटते वक़्त गोरा दा मुझे पकड़ कर महाराज के ऑफिस ले गए थे. महाराज ने मुझे समझाया था - तोमरा तो बिद्यापिठेर छेले. तोमरा-ई  जोदि बाईरेर छेलेदेर मोतो कौरबे तोबे ए-खाने पौरा-शोना कौरले की लाभ?  फिर वही, जो वहाँ जेनरली हुआ करता है, महाराज ने मुझे समझा-बुझाकर इक्लेअर्स की दो टॉफियाँ हाथ में थमा दी थीं.

विद्यापीठ में मार खाना कोई बड़ी बात नहीं थी. ४०० लोगों में से कोई ना कोई तो हर दिन मार खा ही जाता था. पर हाँ, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, यही एक घटना है ज़िन्दगी में, जब मैंने  बे-इंतहां मार खायी थी. चलो, यह भी सही ही रहा - विद्यापीठ में ९ साल रहा और मार एक बार भी नहीं खाई तो फिर रह कर किया ही क्या?

और सबसे दिलचस्प बात जानते हैं क्या है? मार जिस सिटी की वजह से खाई वो आज भी कितनी भी कोशिश क्यों ना कर लूं, मुझसे बजती ही नहीं.

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विद्यापीठ की कुछ ऐतिहासिक छड़ियाँ -
१) ब्लैक पाइप - यह शक्ति महाराज की छड़ी थी. चोरी हो गयी थी एक दिन महाराज के कमरे से और शाम को मीटिंग के दौरान नोटिस भी आई थी कि जिसने भी उसे चुराया है, वापस कर दे. आज भी सोचता हूँ कि इस नोटिस का अभिप्राय क्या था?  क्या महाराज ने सही में यह आशा लगा रखी थी कि जिसने भी यह गुस्ताखी की है, वह छड़ी वापस कर देगा? ख़ैर, छड़ी वापस नहीं होनी थी, सो नहीं हुई.
२) समझावन सिंह और बुझावन सिंह - निरंजन महाराज की दो बदनाम छड़ियाँ. निरंजन महाराज परसेंटेज में मारा करते थे. जितनी बड़ी शैतानी, उतना अधिक परसेंट. सीधा और सरल हिसाब.

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१) शक्ति महाराज आजकल वृन्दावन आश्रम में हैं. वृन्दावन में रामकृष्ण मिशन का एक काफी बड़ा चैरिटेबल अस्पताल है और महाराज उसी के सचिव हैं. वर्ष २०००  में जब महाराज का तबादला वृन्दावन हुआ था, तो काफी गार्जियंस ऐसे थे जो रो पड़े थे. विद्यापीठ को शक्ति महाराज के बिना तब सोंच पाना भी एक कठिन काम था.
२) शुभंकर महाराज आजकल किस आश्रम में हैं, पता नहीं.
३) निरंजन महाराज फिजी में बसे भारतीये मूल के लोगों के वंशजों में से हैं. विद्यापीठ से तबादला होकर महाराज कुछ दिनों के लिए इंस्टीच्युट आफ कल्चर, कोलकाता में थे. अभी रामकृष्ण मिशन के नादी (फिजी) शहर में स्थित आश्रम में हैं.

Sunday, June 20, 2010

Matrimonial

Applications are invited from eligible, damn beautiful (sole jurisdiction to decide this lies with the advertiser - decision on the spot after first date) female candidates (NRI, single daughter of a FILTHY RICH DAD and absolutely no brother ;-)) for filling up the vacant post. Apply urgently. Limited period offer.
*Conditions Apply

Sunday, June 13, 2010

Poachers in the train!

Simba is sad - With their paws selling for as less as Rs. 500, how many Simbas will ultimately grow up to rule the jungle?

Train Number - 2142
Journey - From Patna to Mumbai
Date - June 12th, 2010

The train is somewhere in the border area of Madhya Pradesh and Maharashtra, (most probably in the territory of Maharashtra, although I am not 100% sure of it) when this hawker comes into my compartment S10. She is a lady, looks tribal, is obese and is carrying a home-made, dirty, cloth bag on her right shoulder and is trying to sell a white colour round object that she claims is the nabhi of the Kasturi Hiran (Musk Deer?). I have just woken up after my afternoon sleep in the Side Upper berth and am still sleepy. But the name of Kasturi Hiran is more than enough to jolt me back into the world of reality. I ask her to hand that over to me so that I could see it for myself.

The object is pale white, is very-very soft due to the fur that surrounds it and has a small dark spot on one side. And it does smell great.

Kahan se late ho ye sab? I ask the lady.

Jungle se chunte hain. Hiran ke pet se nabhi gir jaata hai. Wahi hum uthate hain aur bechate hain. She replies.

Hiran ko marate bhi ho iske liye?

Nahi. Jo gir jaata hai khud-ba-khud wahi uthate hain.

I remember hearing a number of childhood stories where Kasturi Hiran keeps running all over the Jungle in the search of the sweet smell that surrounds it, but is never able to find the source of it, which in fact lies not outside it, but inside. This is often compared to the search of man for God wherein he keeps looking all over the world, builds temples, mosques, churches, et all for the said purpose and wages bloody battles on those who follow religions different from his own, never realising the fact that God resides inside him and not outside.

But this is for the first time in my life that I am actually holding the body part of the said deer which is responsible for the restlessness of the beautiful creature.

The smell is so great that I am tempted to purchase one for myself. But I am not very sure of her claim that they just pick up those pieces that fall out naturally from its body and do not kill the animal in order to acquire it. Moreover, I am not sure whether the nabhi does fall naturally at all.

Thankfully, no one in my cubicle buys the stuff either.

But wait! The lady has other things to offer as well.

She fishes out a small plastic jar from her bag and offers nails of some animal to the public. She claims they are the nails of the lion cubs whom they catch in the jungle, take the nail out from the paw of the baby and then leave it alive. The object that she is offering for Rs. 500 a pair is a single small, very sharp nail covered by soft, brown fur and in order to actually touch the nail, you have to remove the fur that is surrounding it.

Suddenly all her claims about not killing the Kasturi Hiran to procure the nabhi seems dubious. After all, how can you simply catch a baby lion, take the nails out of its paws and leave it back in the jungle? What are the chances that the poor creature will survive the injury which is bound to get infected and cause greater harms to it especially at a time when its natural immunity is still not properly developed? And why only take the nails of the cub, when you can actually take the complete skin which will no doubt fetch you a far higher price in the black markets of the wild animal body parts? Why be so generous to the baby cub?

She persuades me to buy a pair which I refuse continuously. However, the man on the upper berth opposite to me seems interested and bargains on the price. I try to persuade him not to buy. I try to put across my point by saying that there are only around a thousand tigers left in India today and that we should not buy the body parts of wild animals and encourage their poaching. But he hears me not, goes ahead and buys a pair for just Rs. 50!

Ridiculous! What peanuts are we ready to kill non-human species for?

However, the whole incident did have a lesson for me. It showed how easy it is to write blogs and forward emails to your friends asking them not to buy stuff made of body parts of wild animals and how immensely difficult it is to persuade even a single man from actually buying it in the real world. Especially, when all that you have to pay for the prized possession is just Rs 50.

Going at this rate, how long will it be before we lose all our tigers and lions and other beautiful creatures for all times to come?