पता नहीं ये सब लिखना भी चाहिए या नहीं, पर काफी दिनों से इन बातों को लिखना चाह रहा हूँ. इस लेख के दो भाग हैं - पहला वो जो थोड़ी बहुत आपबीती है और दूसरा वो जो उन मित्रों के प्रति धन्यवाद व्यक्त करता है जो जरूरत के वक़्त मेरे साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े रहे.
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वो दिन बुरे थे .. काफी बुरे.
जब घर से अनिल छोटा बाबू का फ़ोन आया तो मैं करिअर लौन्चर में क्लास कर रहा था. मुझसे कहा गया कि माँ की तबियत काफी बिगड़ गयी है और उसे बम्बई में टाटा मेमोरिअल अस्पताल में जांच के लिए ले जाना है. माँ काफी सालों से हार्ट-पेशेंट थी - मुझसे कहा गया कि वही बिमारी सहसा काफी बिगड़ गयी है.
शाम को इंटरनेट कैफे में जब टाटा मेमोरिअल के वेबसाइट पर उनका पता, इत्यादि देख रहा था तो काफी कोशिशों के बावजूद ह्रदय रोग विभाग के बारे में कुछ भी पता नहीं चला. हाँ, कैंसर के ऊपर भरी-पूरी जानकारी थी. मुझे याद है मैं काफी झुंझला गया था उस दिन इंटरनेट कैफे मैं - टाटा का मुंबई स्थित अस्पताल और वेबसाइट पूरी तरह से अपडेटेड भी नहीं है. बाकी देश का हाल बुरा होने में कोई अचंभित कर देने वाली बात तो होनी ही नहीं चाहिए.
ख़ैर, मैं पुणे में था और मुंबई जाकर मुझे एक होटल बुक करके रखना था. माँ चलने-फिरने में असमर्थ है, इसलिए प्रयास यही करना था कि कमरा ग्राउंड फ्लोर पर ही हो. मुंबई मैं उस समय गौरव भैया के अलावा कोई भी ठौर-ठिकाना था नहीं, इसलिए प्रथम दिन उन्ही के यहाँ पोवई में जाकर रुका. गौरव भैया से मेरी जान-पहचान १०-१५ दिनों से अधिक की नहीं थी. पुणे में जिस पी.जी. में मैंने पहली बार डेरा जमाया था, गौरव भैया उसी पी.जी. में रह रहे थे. सोंचता हूँ कुछ लोग कितने कम दिनों के साथ के बावजूद ज़िन्दगी भर के लिए मित्र बन जाते हैं, जबकि अन्य लोगों से कितने भी दिनों की जान-पहचान क्यों ना हो जाए, मित्रता तो हो ही नहीं सकती.
अगले दिन अस्पताल के रास्ते में मोबाइल बस में ही कहीं गिर गया. दौड़ कर वापस बस में चढ़कर उसे खोजने की कोशिश भी की, पर मुंबई की भीड़ भरी बस में उसे नहीं मिलना था, सो नहीं मिला. सारे नंबर गायब. यह तो अच्छा था कि गौरव भैया का नंबर एहतियात के तौर पर जेब में अलग से लिखकर रख लिया था. हमारे स्कूल के बैच की एक कॉमन इ-मेल आई-डी उन दिनों रेडिफ पर हुआ करती थी. गौरव भैया को फ़ोन करके कहा कि उसपर मेरी तरफ से एक मेल डालें और लिखें कि मुझे ब्रजेश के नंबर की सख्त आवश्यकता है - अगले दस पंद्रह मिनटों के अन्दर. थोड़ी ही देर में ब्रजेश के नंबर से सम्बंधित कम से कम पांच मेल इन-बोक्स में थे. ब्रजेश को फ़ोन मिलाया और फिर उससे ही छोटा बाबू का नंबर लिया.
इस बीच जब यह सब हो रहा था, मैं अस्पताल के काउंटर पर जाकर ह्रदय-विभाग के बारे में पूछताछ कर रहा था. पर जैसे ही मैंने पूछा, वहाँ खड़ी नर्स ने मुझे इस कदर घुर कर देखा मानो मैं कोई अजूबा हूँ. कहती है - आपको पता नहीं ये कैंसर का अस्पताल है, हार्ट का नहीं? पूरी दुनिया ये जानती है.
मुझे काटो तो खून नहीं. भागा-भागा बाहर गया. बूथ से छोटा बाबू का नंबर डायल किया तो उधर ने बोला गया - जितना बोला गया है, उतना करो. ज्यादा सोंचने की आवश्यकता नहीं है. सोंचने के लिए बाकी लोग हैं घर पर.
कोई कुछ भी खुल कर बताने को तैयार नहीं था. और मैं परेशान था - 'माँ को कैंसर कैसे हो सकता है. पूरे परिवार में बस एक बूढी दादी ही हैं जो बीड़ी पीया करती थीं, वो भी उन्हें छोड़े ज़माना होने को आया. बाकी किसी का भी बीड़ी-सिगरेट से दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं. और मुजफ्फरपुर में तो कोई अधिक प्रदुषण भी नहीं है.' वो तो जब बाद में माँ को लेकर अस्पताल में दाखिल हुआ तो देखा की यहाँ तो भई छः महीने - साल भर के बच्चे भी इलाज करवा रहे हैं. असल में बात ये है ये यह रोग किस कारण वश होता है, यह किसी को भी नहीं पता. धुम्रपान करने से इसके होने की संभावना बढ़ अवश्य जाती है, पर यह कोई पत्थर पर लिखी लकीर नहीं कि जो धुम्रपान करता है, उसे कैंसर हो ही जाएगा, या कि जो नहीं करता वह इससे बचा रहेगा. अगर इस बात को मद्देनज़र रखा जाए तो विश्व की दो सबसे भयंकर बीमारियों - कैंसर और एड्स - में से कैंसर अधिक भयावह मालूम होती है. एड्स का तो कारण लगभग सभी को पता है, इसलिए उससे बचाव भी किया जा सकता है, कैंसर से बचने का कोई उपाय नहीं.
ख़ैर अब बात जरूरत से अधिक गंभीर मालूम हो रही थी. काफी खोज-बिन के बाद जाकर एक होटल मिला जिसमें ग्राउंड-फ्लोर पर कमरे थे. काफी छोटे-छोटे, अँधेरे और तंग. किसी पेशेंट के ठहरने लायक तो एकदम भी नहीं. पर डूबते को तो तिनके का सहारा भी काफी लगता है. कुछ और उपाय ना देखकर मैंने उसे ही बुक कर लिया - 'एक बार टिकने को कोई जगह हो जाए, बाकी बाद में देखी जायेगी.'
इस अस्पताल के साथ कुछ बुनियादी दिक्कतें हैं - अस्पताल मुंबई के बीचों-बीच लोअर-परेल में स्थित है. ज़मीन और रियल स्टेट का भाव यहाँ इस प्रकार आसमान छूता है कि ग्राउंड-फ्लोर पर दुकानें बनाना अधिक लाभदायक साबित होता है. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हमारे २२-२५ दिनों के स्टे के बावजूद हमें कोई और होटल ऐसा नहीं मिला जिसमें ग्राउंड-फ्लोर पर भी कमरें हों. और बात यहीं तक सिमित होकर रह जाती तो फिर भी ठीक था, पर भैय्या ये तो मुंबई सहरिया ठहरी - मायानगरी. लोअर परेल में ही नहीं, मुंबई के लगभग सारे छोटे-बड़े होटलों में धंधे चलते हैं. और धंधे भी ऐसे कि होटल वाले मरीजों तक की परेशानियों को समझने की ज़रुरत नहीं समझते. लगभग हर दिन ही हमारे बगल के कमरे में ठहरे नेपाली मरीज़ों को सुबह-सुबह कमरा खाली करना पड़ता था. दिन भर बेचारे अस्पताल में गुजारते, और फिर रात को अपने कमरे में आकर टिकते. तिसपर बात ये कि भाड़ा भी होटल वाले को २४ घंटे का चाहिए. इंसान जब तक अपने पैरों पे खड़ा है, तभी तक ठीक है. साला जिस दिन थोड़ा सा भी लड़खड़ाये, भेड़िये भरे परे हैं हर ओर इंसानी शक्लों में - नोंच-नोंच कर खा जाने को तत्पर.
शाम की ट्रेन से माँ आई. साथ में पापा और छोटे मामाजी थे. मैं स्टेशन मास्टर से व्हील-चेयर लेकर प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार कर रहा था. माँ को उसपर बैठाया और टैक्सी ली. माँ काफी कमज़ोर हो गयी थी. बोलने की भी शक्ति नहीं थी. अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैं घर से लौटा था. कितने अच्छे से हमने घर को दिवाली में मिलकर सजाया था. कैम्पस में ही सही, पर शाम को माँ के साथ टहलने भी गया था. माँ को खांसी थी, नोर्मल दवाएं जो उसमें चलती है, चल रही थी. बात इतनी तेज़ी से बिगड़ी है, देखकर भी विश्वास नहीं हो रहा था. और पापा - वो भी तो ऐसे दिख रहे थे मानों कई दिनों से ठीक से सोये भी ना हों. जो भी बातें हुयीं, मुख्यतः मामाजी से ही हुयीं. माँ बात करने के लायक नहीं थी और पापा से क्या बात करूँ - और किस तरह - मेरी समझ के परे था.
इलाज़ जो चलना था, चला. जो-जो टेस्ट डॉक्टर ने कहा, कराया गया. इस देश में जनसंख्या इतनी अधिक है और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ें इतनी कम कि रिपोर्ट आते-आते ही सप्ताह भर गुज़र गया. इस बीच डॉक्टर कोई भी दवाई चलाने से सख्त इनकार कर रहा था. कहता था - 'जब बिमारी ही नहीं पता, तो दवा क्या चलायें.'
करीब दो-तीन महीने बाद जब लैंस आर्मस्ट्रोंग की किताब 'इट्स नॉट एबाउट दा बाइक: माई जर्नी बैक तो लाईफ' पढ़ी तो उसमें सन्दर्भ था - लैंस अपने रोग की जांच परताल कराने किसी छोटे से शहर में जाता है - फोर व्हीलर से - सवेरे अस्पताल में दाखिल होता है और शाम तक सारी रिपोर्ट उसके हाथ में होती है. भारत आर्थिक स्थिति के तौर पर कहीं भी क्यों ना पहुँच गया हो, ज़मीनी सच्चाई तो यही है कि हमारे यहाँ बेसिक नेसेसिटिज की भारी कमी है. भाजपा का 'इंडिया-शाइनिंग' कैम्पेन कितना खाली और अर्थहीन था, यह वही समझ सकता है जो रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए आज भी दर-दर भटकने को बाध्य है. कोई आश्चर्य नहीं कि जनता से पूर्ण-रूपेण कटी सरकार और ए.सी. लगे दफ्तरों में बैठे उनके पोलिसी-मेकर्स के द्वारा बनायी गयी दलील जनता के गले नहीं उतरी और भाजपा को देश की तमाम आर्थिक उपलब्धियों के बावजूद मुँह की खानी पड़ी.
रिपोर्ट को लेकर डॉक्टर से मिला गया. देखकर डॉक्टर कहता है - 'फोर्थ स्टेज है. अधिक से अधिक डेढ़ साल और.' माँ को अभी तक यह पता नहीं था उसे क्या बिमारी है. उस दिन जब पता चला तो मुझसे पूछती है - 'तुमको पता था ना?' मैं क्या बोलता? अभी भी तो उसे अर्ध-सत्य ही बताया गया था. बताया गया था - 'बिमारी फर्स्ट स्टेज में है. इतने बड़े अस्पताल में इतनी दूर से आयें हैं. ठीक तो होना ही है.' इंसान भी ना - अजीब प्राणी है. थोड़ी सी दिलासा देने के लिए कितनी बड़ी बात छुपा जाता है. और माँ - वो भी कितनी भोली थी. हम झूठ बोलते रहे और वो हमारी झूठी बातों को सुनकर बच जाने के सपने देखती रही. लगभग ३ महीनों के बाद जब फरवरी में हम दुबारा आये थे उसे लेकर चेक-अप के लिए तब जाकर उसे ज्ञात हुआ था कि असली स्थिति क्या है. अजीब बात यह है कि बीच में उसकी तबियत काफी हद तक संभल गयी थी. फरवरी में जब आई थी, थोड़ा बहुत चल-फिर भी रही थी. कोशिश करती थी कि व्हील-चेयर पे ना ही बैठे. आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, पर लम्बी दूरियाँ खुद से तय कर लेती थी. पर फरवरी में चेक-अप के बाद जब हमने डॉक्टर से पूछा कि दुबारा कब आना है, उसने हमीं से पलटकर पूछा था - 'कब आना चाहते हैं?' शायद वह समझ चुका था कि ये सुधार वास्तव में कोई सुधार है ही नहीं.
माँ ३० जून, २००७ को शाम के लगभग साढ़े ५ बजे के आस पास चली गयी. मैं कॉलेज का लगभग एक पूरा सेमेस्टर कॉलेज से गायब था. इसलिए यह जानते हुए भी कि बात कभी भी बिगड़ सकती है, १६ जून को मुझे वापस पुणे की ट्रेन से रवाना कर दिया गया था. ३० जून को माँ की तबियत पटना में लगातार बन-बिगड़ रही थी. मैं लगातार घर से फोन पर बना रहा था. साढ़े ५ बजे के आस-पास बोला जाता है कि जैसे भी बन पड़े, घर आ जाओ. जेनरल की टिकट लेकर ही गाड़ी के स्लीपर कोच में सवार होता हूँ. अगले दिन गाड़ी वर्धा में रुकती है तो मोबाइल में कुछ सिग्नल आता है. घर पर फ़ोन करता हूँ तो पापा बोलते हैं माँ को महनार ले जाया जा रहा है. अटपटा सा है कुछ. 'इतनी ख़राब हालत में महनार क्यों ले जा रहे हैं?' - मैं पूछता हूँ तो पापा कुछ बोलते नहीं. छोटे दादाजी का थोड़ी देर में फोन आता है तो असल बात पता चलती है. दिन के लगभग साढ़े ८, ९ के करीब हो रहे हैं. माँ को गए ऑलरेडी तक़रीबन १५-साढ़े १५ घंटे हो चुके हैं.
उधर सौरभ को तो कुछ भी पता नहीं. उससे अभी तक सारी बातें गुप्त रखी गयीं हैं - यह बोलकर कि मेडिकल की पढ़ाई भारी होती है. बच्चा वहाँ अकेला है, पता चलने पर रह भी पायेगा या नहीं. वह बस फरवरी में मुंबई आया था माँ से मिलने और फिर २८ जून को माँ ने उससे लगभग ४५ मी. बातें की थी फोने पे - समझाया था काफी उसे. सौरभ को खबर होने में अभी भी शायद शाम तक का वक्त है.
माँ को गए अब तीन वर्ष होने को आये हैं. ३० जून को उसके बिना तीन वर्ष पूरे हो जायेंगे. बिमारी के दौरान काफी लोगों के सही चेहरे सामने आये. कुछ लोग साबुत पलट गए, तो कुछ ऐसे भी रहे जो तत्परता से हमलोगों के साथ कायम रहे. इंसान की परख तो भई बुरे वक़्त में ही होती है. आसमाँ जब साफ हो तो संग हर कोई चलता है, पर साथ जो हो बारिश में भी, ऐसे मुट्ठी भर लोग ही होते हैं.
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घर-परिवार की तो बात ही अलग होती है, विद्यापीठ के दोस्तों ने और गौरव भैया ने भी काफी साथ निभाया उन दिनों. २-४ ही लोग थे उस वक़्त जो ऑलरेडी जॉब में आ चुके थे. माँ को पहली बार जब पटना पहुँचा कर पुणे लौटा तो सोंचा था कि आखिरी साल का सारा खर्च खुद से निकालना है, घर से एक पैसा भी नहीं लेना. लोगों को मेल किया तो बिना कोई नौकरी पास में रहे भी ९०,००० चंद दिनों के भीतर जमा हो गए. सोंचता हूँ - पता नहीं अगर विद्यापीठ के अलावा बाकी किसी स्कूल से पढाई की होती तो ये संभव हो पाता क्या? विद्यापीठ में गुजारे वो ९ वर्ष अपने-आप में एक दूसरी ज़िन्दगी है, और विद्यापीठ का कर्ज किस भाँती चुका पाऊंगा यह मुझे पता नहीं. और लोग हैं, जो अभी भी उनका अकाउंट नंबर मांगो पैसे लौटने के लिए तो बोलते हैं - 'बहुत पैसा हो गया है तेरे पास? भेज दूंगा नंबर.' और नंबर है जो आता ही नहीं.
विद्यापीठ का यह सहारा एक बहुत बड़ी ताकत है. अभी कुछ दिनों पहले एक और मित्र की माँ की तबियत बिगड़ी थी, दिल्ली में इलाज चल रहा था. और लोग एक बार फिर से उठ खड़े हुए थे मदद के लिए. उसकी माँ की तबियत अब अच्छी है.
आशा करता हूँ कि विद्यापीठ के द्वारा प्रदान की गयी यह एकता ता-उम्र कायम रहेगी.
सारी तस्वीरें बोस्की दीदी के सौजन्य से.