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Sunday, March 15, 2015

मोतीलाल

अँधेरा था उस वक़्त! बिजली थी नहीं ... कभी रहती ही नहीं थी!!

आँगन के एक छोड़ पर स्थित बूढ़े दादाजी का कमरा हमेशा की तरह बंद था। मैंने उसे कभी खुला देखा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता ... जब वो ज़िंदा थे और हम बच्चे घर से हर दोपहर उनका खाना लेकर दुकान पर आया करते थे, तब भी नहीं। आज सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है ... बूढ़े दादाजी तो दुकान पर बने इसी कमरे में रहा करते थे, तो फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि मैंने कभी भी इस कमरे के अंदर कदम ही नहीं रखा? खैर ... अब तो उनको गुजरे एक अरसा हो चुका था। अब इस बंद पड़े, धूल-धूसरित कमरे में दुकान का कूड़ा-कचड़ा पड़ा रहता था ... दवाइयों के कार्टन्स, पुरानी शीशी-बोतलें, रस्सियाँ, बाँस के कई-एक फट्टे और ना जाने क्या-क्या ... आधी खुली खिड़की से भीतर झाँकने पर इस कबाड़ के नीचे दबी वह चौकी नज़र आती थी, जिसपर एक समय बूढ़े दादाजी सोया करते थे ... 

रात के पौने-८, ८ के करीब हो रहे थे। बाहर मार्केट की चिल्लम-चिल्ली अंदर आँगन तक आ रही थी – दुकान में खड़े गहकियों की आवाज़ें और सड़क पर से गुजरती गाड़ियों का शोर एकजुट होकर कुछ ऐसी खिचड़ी पका रहे थे कि कानों में पड़ती ध्वनि-तरंगें कुल मिलाकर अर्थहीनता ही पैदा कर रही थीं। जिस दरवाजे से होकर आँगन में आना होता था, उससे होते हुए दुकान के (जेनरेटर के) बल्ब की रौशनी आँगन से सटे बरामदे पर एक मध्धम सा आयत रच रही थी ...

मोती इसी दरवाजे पर खड़ा मेरे और दादाजी की तरफ बिना कोई हलचल किए, एकटक देख रहा था। उसकी परछाई रोशनी के आयत आकार को बिना छेड़े, उसी के अंदर अपनी एक अलग पहचान बुन रही थी।

मेरे हाथ में टॉर्च थी। एक हाथ से मैं चापाकल चला रहा था और दूसरे से दादाजी के पैरों पर टॉर्च की रोशनी डाल रहा था ... दादाजी के पैरों से खून रिस रहा था जिसको रोकने और अभी-अभी हुए ताज़ा घाव को साफ करने के प्रयास में वो पैरों में डेटौल लगा रहे थे। 

मोती ने दादाजी को ही काट लिया था ... एक गहकी की दवाई लाने को जैसे ही दादाजी ने कुर्सी से नीचे अपना पाँव रखा था ... वो गलती से वहीं कुर्सी से सट कर बैठे मोती की पुंछ पर आ गया था और मोती ने आव देखा था न ताव ... अकस्माक दादाजी को ही हबक लिया था।

पैर को साफ करके वापस दुकान में आए तो वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी ... 

मोती हर शाम शायद ही कभी हर्जा किए दुकान पर कुछ नहीं तो पिछले ४-५ सालों से तो आ ही रहा था। गंगा किनारे से लेकर चौक तक और इससे भी थोड़ा आगे बढ़कर ... वस्तुतः पूरे महनार बाज़ार में ... अगर ऐसा कहा जाए कि मोती अधिक नहीं तो कम से कम दादाजी के इतना प्रसिद्ध तो था ही, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिछले कुछेक वर्षों से क्या सुबह, क्या शाम, मोती लगभग-लगभग हर-हमेशा दादाजी के साथ ही हुआ करता था ... 

ऐसे में उसका दादाजी को ही काट लेना एक अच्छी-खासी खबर थी बाज़ार के लिए ... 

जितने मुँह, उतनी बातें ...

-    जोतिसे बाबू के काट लेलक मोतिया ... कईसन हरामखोर कुत्ता हई जे मालिकबे के हबक लेलक ...
-    कितनी बार जोतिस बाबू को समझाये हैं कि कुत्ताजात आखिरकार कुत्ताजात ही होता है, इसको दुकान पर मत लाया कीजिए ... मगर किसी की सुनें तब ना ... इस भीड़-भाड़ में आज नहीं तो कल, ये तो होना ही था ...
-    कटाहा हो गया है क्या जी ... बताइये तो ... साला जिसके हाथ से खाता है उसी को काटता है ...  

दादाजी ने पंकज को मुन्ना छोटा बाबू के दुकान भेज दिया था कुत्ते के काटने की दवाइयाँ और सुई लाने और खुद घाव की मरहम-पट्टी में लग गए थे ... और मोतीलाल (दादाजी उसे प्रेम से मोती की जगह मोतीलाल बुलाया करते थे) थे जो एक कोने में दुबके कभी दादाजी के चेहरे को तो कभी उनके घाव को चुपचाप देख रहे थे। कोई कुछ भी क्यों ना कहे ... उसकी कातर, सहमी-सहमी सी आँखें इतना तो अवश्य कह रही थी कि उसने ये जानबूझकर नहीं किया था और कि जो भी हुआ था, उसका उसे तहे-दिल से पछतावा था।  

दुकान बंद करके वापस जाते वक़्त भी अन्य दिनों के विपरीत वो दादाजी और मेरे कुछ पीछे ही चला था ... मानो एक तो हमसे आँखें मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हो ... दूसरे उसे शायद इस बात का अंदेशा भी हो गया था कि आज तो उसका थकुचाना सौ-टका तय है ... घर में घुसते ही दौड़कर अंदर वाले कमरे में रखे पलंग के एकदम सुदूर कोने में दुबक गया था ... 

बबलू छोटा बाबू को पता चला था तो स्वाभाविक तौर पर काफी गुस्सा हुए थे ... बांस की एक फट्टी से क्या मार पड़ी थी मोती को उस रात ... बेचारा किकियाते हुए कभी इस कोना भागता था, तो कभी उस कोना ... जब तक दादाजी रोकते, नहीं रोकते अच्छी-खासी धुलाई हो गयी थी बेचारे की। छोटा बाबू के कहने पर खाना भी नहीं मिला था उसको, सो अलग ... 

बात यहाँ तक गर समाप्त हो जाती तो चलो फिर भी उसे आराम था ... लेकिन मोतीलाल की झोली में अभी कष्ट और परीक्षाएँ दोनों कुछ और लिखी थीं ... 

रात को बातचीत हुई और निष्कर्ष यह निकला कि मोती कटाहा हो गया है ... जो दादाजी को ही काट खाये वो पता नहीं और कितने लोगों को काटेगा ... ऐसे कटाहे कुत्ते का घर में रहना ठीक नहीं। साझा सहमति से निर्णय यह लिया गया कि आज की रात मोती की आखिरी रात है घर में ... कल सुबह इसको डोम के हवाले कर दिया जाएगा। 

पता नहीं छोटा बाबू ने इतनी जल्दी कैसे किया, मगर सुबह-सुबह डोम साहब हाजिर थे मोती को साथ ले जाने के लिए ... कमर में मटमैली पड़ चुकी, लंगोट की तरह बांधी गयी धोती, बदन पर आधी फटी गंजी, कोयले-सा काला शरीर, लगातार मेहनत-मजदूरी करने के कारण ठीक-ठाक मांसल हाथ-पैर, यों मोटी-मोटी घनी मुछें, सर पर बेतरतीबी से बिखरे, रूखे पड़े बाल ... मानो एक अरसे से उनमें तेल ना पड़ा हो ... डोम ने घर के दरवाजे पर ही इंतज़ार किया था ... 

छोटा बाबू मोती को लेकर बाहर आए थे और उसकी ज़ंजीर डोम के हाथों में थमा दी थी। अंदर पुजा-घर में बैठे दादाजी का एक हिस्सा अभी भी इस बात से सहमत नहीं था कि मोती कटाहा हो गया है ... जानवर है बेचारा, गलती हो गयी ... गलती किससे नहीं होती? इसका मतलब ये तो नहीं कि उसे घर से ही निकाल दिया जाये?’ वो कमरे से बाहर भी नहीं निकले थे ... 

मगर घर में किसी की कोई भी मरज़ी क्यों ना हो, इतने बुरे तरीके से पिटने के बाद भी मोतीलाल की घर त्यागने की तनिक भी इच्छा नहीं थी। जंज़ीर डोम के हाथों में जाने भर की देर थी और मोती ने विपरीत दिशा में, घर के भीतर की तरफ ज़ोर लगाना शुरू कर दिया था ... मानो उसे पहले से ही इस बात का आभास हो गया था कि उसकी गलती के एवज़ में उसे गृह-निष्काषित भी किया जा सकता है और ऐसी विषम परिस्थिति के उत्पन्न होने पर उसका क्या करना उचित होगा, उसने जैसे पहले से ही तय कर रखा था।

डोम था मजबूत। मोती ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति डोम के विरुद्ध झोंक दी थी मगर इसके बावजूद निरीह प्राणी बेचारा कहाँ टिक पाता डोम की इंसानी ताकतों के आगे? उसके नहीं चाहते हुए भी रूखी, ऊबड़-खाबड़ सड़क पर घिसटते-घसीटाते डोम उसे घर से १०-१२ घर आगे तक ले जाने में सफल हो गया था ... लेकिन फिर जाने मोतीलाल ने अपने सर को किस भांति घुमाया कि गले में पड़ा पट्टा उसके सर से निकल कर बाहर आ गया ... बस इतना होना था कि मोतीलाल बिजली की तेजी के साथ दौड़ते हुए वापस घर में ... और सिर्फ घर में ही नहीं, बल्कि दादाजी जिस कमरे में, जिस पलंग पर थे, ठीक उसी पलंग के नीचे ... जैसे उसे अभी भी यह विश्वास हो कि कोई और ले या ना ले, दादाजी अभी भी उसका ही पक्ष लेंगे और उसे घर से निकाल बाहर नहीं करेंगे ... डोम जब मोती के पीछे-पीछे वापस आया तो उसने पाया कि दादाजी मोती और लोगों के उसके घर से निकाले जाने के निर्णय के बीच में खड़े हैं ... एकदम अडिग ...  

हालांकि इसमें कोई संशय नहीं कि दादाजी को मोती से बेहद लगाव था ... लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दादाजी कभी कुत्ता पालने के पक्ष में थे ही नहीं ... अकसर मुझसे कहा करते थे कि किस आफत को उनके गले बाँध दिया हूँ ... ले क्यों नहीं जाता इसे मुजफ्फरपुर अपने साथ?  

वास्तव में मोती को महनार में होना ही नहीं चाहिए था ... उसे तो दादाजी मेरे कहने पर लाए थे ... 

मुझे बचपन से ही जानवरों से काफी लगाव रहा है ... और कुत्तों से तो काफी अधिक। जैसा कई बच्चों के साथ होता है मेरी भी दिली तमन्ना थी कि घर में एक कुत्ता हो। पापा से ज़िद की तो उन्होंने आश्वाशन दे दिया कि अगर दादाजी महनार में कुत्ता ऊपर कर देंगे तो वो उसे मुजफ्फरपुर ले आएंगे ... फिर क्या था ... मैंने दादाजी को अपनी तमन्ना और पापा का आश्वाशन दोनों बताए और ३-४ महीने के अंदर-अंदर मोतीलाल का महनार में गृहप्रवेश हो गया। 

जिस दिन मोती घर में आया था, मैं भी महनार में ही था। गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं। कितना छोटा सा था वो उस वक़्त! मानो मेरी नहीं तो कम से कम दादाजी की एक हथेली में तो पूरा का पूरा अवश्य ही समा जाए!! ज़्यादा समय नहीं हुआ था उसको दुनिया में आए ... मुश्किल से २०-२५ दिन ... नन्हा सा, इधर-उधर लुढ़कता-पुढ़कता, अभी भी अपने पैरों पर ढंग से खड़ा होना सीखने की कोशिश करता, गिरता-संभलता ... जीता-जागता रुई का गोला हो जैसे ... एकदम सफ़ेद ... कहीं कोई दाग नहीं ... और मुलायम इतना कि जी में आए कि गोदी में भरकर कस के मसल दें ... दादाजी ने उसका नाम उसके दूध-से सफ़ेद रंग से प्रभावित होकर रखा था या फिर सिर्फ इसलिए कि भारतवर्ष में – और कम से कम गंगा के मैदानी क्षेत्रों में तो अवश्य ही – ‘मोती’ पालतू कुत्तों का शायद सर्वाधिक प्रचलित नाम है ... ठीक कह नहीं सकता ... 

पर पापा पलट गए थे ... जैसे ही उन्हें पता चला कि महनार में मेरे लिए कुत्ता आ गया है वो उसे घर लाने के एकदम से खिलाफ हो गए ... कौन देखरेख करेगा उसका यहाँ? तुमलोग (मैं और मेरा भाई) तो यहाँ रहते हो नहीं ... विद्यापीठ चले जाओगे ... फिर कौन उठाएगा इस मुसीबत को? ... इसको नहलाना-धुलाना, सुबह-शाम टहलाना, खाना देना ... कम मुसीबत है क्या?’

और इस प्रकार मोतीलाल महनार में दादाजी की देखरेख में ही रह गए ...

उसको हमारे घर का, महनार का और दादाजी की ज़िंदगी का अभिन्न अंग बनने की ये कहानी पता हो, इसका मोतीलाल ने कभी कोई संकेत नहीं दिया ... उसे इस बात में कभी दिलचस्पी भी नहीं रही होगी शायद ... मगर मेरे प्रति उसकी क्या भावनाएँ थी यह मैं आज तक समझ नहीं पाया ...

घर में घुसकर, आँगन पार करके, पुजा-घर के ठीक बगल में बाड़ी में जाने के लिए पतला सा गलियारा है। इसी गलियारे के मुँह पर मोतीलाल को सिक्कड़ से बांधा जाया करता था ... कुछ इस कदर कि अगर किसी को भी बाड़ी में जाना है तो उसे मोतीलाल के एकदम निकट से ... एक प्रकार से उसकी रज़ामंदी लेकर ही बाड़ी में प्रवेश मिल सकता था ... मोतीलाल को बांधे जाने वाली इस जगह से घर का प्रवेश-द्वार डायगोनली सामने पड़ता है ... मतलब कोई भी घर में अगर बाहर से आए तो मोतीलाल की नज़र तो उसपर पड़नी ही पड़नी थी। 

एक आदत थी महोदय की ... पता नहीं बाकी कुत्ते भी ऐसा करते हैं या नहीं ... पर मोती अकसर ही किया करता था। बंधा रहता था प्रायः ही ज़ंजीर से इसलिए कहीं आ-जा सकता था नहीं ... जब भी कोई घर में आता था तो अपनी पिछली दो टांगों पर खड़े होकर आगे की दो टांगों को कुछ इस कदर हवा में हिलाया करता था मानो आने वाले को अपने समीप बुला रहा हो ...  

मैं भी जब कभी महनार जाया करता था तो ऐसे ही मुझे भी मोती प्यार भरा बुलावा भेजा करता था ... मगर जैसे ही मैं पास जाता, थोड़ा बहलाने-पुचकारने की कोशिश करता ... वो इस कदर भौंकना चालू कर देता मानो अभी तुरंत काट खाएगा। मुझे उसका मेरे प्रति यह बर्ताव ... पहले प्यार से, एकदम शांत भाव से पास बुलाना और फिर सहसा भौंक उठना ... आज तक पल्ले नहीं पड़ा। धीरे-धीरे मुझे उससे हल्का-हल्का डर भी लगने लगा ... और आज तक शायद यही एक कुत्ता है जिससे मुझे वास्तव में कभी डर लगा हो।

खैर ... दादाजी को काटने के पहले या बाद उसने फिर कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया। उस शाम भी पता नहीं उसे क्या हो गया था ... उसका ध्यान कहीं और रहा होगा शायद ... किसी और दुनिया में ... जहाँ से सहसा इस दुनिया में जबरन ले आए जाने पर वो बौखला गया हो ...

. .......... .

वर्ष २००१ में जब दादाजी की तबीयत खराब हुई थी और हमलोग उनके हार्ट का औपरेशन करवाने उन्हें दिल्ली एस्कॉर्ट अस्पताल ले गए थे तो महनार एकदम से मानो वीरान हो गया था। बबलू छोटा बाबू भी दिल्ली गए थे ... मगर फिर बीच में महनार वापस आ गए थे ... एक तो किसी पुरुष सदस्य का घर पर रहना आवश्यक था, दूसरे बहुत अधिक दिन तक दुकान बंद रखना भी उचित नहीं था। 

वापस आते हैं तो देखते हैं कि मोती खाना-वाना सब त्यागे हुए है ... सामने खाना पड़ा का पड़ा रह जाता है और मोती है कि कभी आधा पेट खाकर, तो कभी नहीं खाकर यूं ही निस्तेज पड़ा रहता है, दुबला भी गया है काफी ... छोटा बाबू को काफी-काफी देर तक उसके पास बैठकर उसको पुचकारना पड़ता था, बहलाना-फुसलाना पड़ता था ... तब जाकर कुछ ठीक-ठाक खाना चालू किया था उसने फिर ... ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे भी अंदेशा हो गया था कि दादाजी की तबीयत कुछ अधिक ही खराब है और वह भी अपने तरीके से ही सही ... घर की विपरीत परिस्थितियों में अपनी सहभागिता दर्ज़ कराने की कोशिश कर रहा था ...

. .......... .

आज ना तो दादाजी हैं ... ना मोती ही ... और ना ही वह पुरानी दुकान जहाँ मोती ने दादाजी को काटा था। 

दादाजी का दिल्ली का औपरेशन सक्सेसफुल रहा था ... वापस महनार आए थे सही-सलामत ... कुछेक वर्ष ठीक भी रहे लेकिन फिर तबीयत गड़बड़ाई और २१ मई, २००४ को उन्होंने पटना में एक नर्सिंग होम में अपनी आखिरी साँसे लीं। 

मोती पहले ही गुज़र चुका था ... जिस दिन वो गुज़रा था ... उसके कुछ दिनोपरांत तक दादाजी काफी दुःखी रहे थे। जब मरा था तो उसी डोम को फिर से बुलाया गया था ... दादाजी उसके साथ गंगा किनारे जाकर एक ढ़ंग की जगह तलाश कर ... मोती के पार्थिव शरीर को गड्ढा कर वहाँ खुद से दफ़ना कर आए थे ... 

वक़्त गुज़रा और उस पुरानी दुकान की जगह पर रीकंस्ट्रकशन कर के आज एक नया मार्केट कम्प्लेक्स खड़ा है ... अब ना तो वह पुरानी दुकान है, ना वह आँगन, ना चापाकल और ना ही बूढ़े दादाजी का वो कमरा ... जिसमें एक वक़्त वो अपनी ज़िंदगी जिया करते थे ... 

हाँ! एक चीज़ आज भी शेष है यहाँ पर ... चापाकल जहाँ पर हुआ करता था ... वहाँ आज भी एक छोटा सा लोहे का टुकड़ा ज़मीन से बाहर की ओर झांक रहा है ... मानो बेबस, लाचार ... अपनी जानी-पहचानी, पुरानी दुनिया को एक नई ... बिलकुल अजनबी दुनिया से दिन-प्रतिदिन लुटते देख रहा हो ...

Picture for Representational Purpose only.

Sunday, June 13, 2010

Poachers in the train!

Simba is sad - With their paws selling for as less as Rs. 500, how many Simbas will ultimately grow up to rule the jungle?

Train Number - 2142
Journey - From Patna to Mumbai
Date - June 12th, 2010

The train is somewhere in the border area of Madhya Pradesh and Maharashtra, (most probably in the territory of Maharashtra, although I am not 100% sure of it) when this hawker comes into my compartment S10. She is a lady, looks tribal, is obese and is carrying a home-made, dirty, cloth bag on her right shoulder and is trying to sell a white colour round object that she claims is the nabhi of the Kasturi Hiran (Musk Deer?). I have just woken up after my afternoon sleep in the Side Upper berth and am still sleepy. But the name of Kasturi Hiran is more than enough to jolt me back into the world of reality. I ask her to hand that over to me so that I could see it for myself.

The object is pale white, is very-very soft due to the fur that surrounds it and has a small dark spot on one side. And it does smell great.

Kahan se late ho ye sab? I ask the lady.

Jungle se chunte hain. Hiran ke pet se nabhi gir jaata hai. Wahi hum uthate hain aur bechate hain. She replies.

Hiran ko marate bhi ho iske liye?

Nahi. Jo gir jaata hai khud-ba-khud wahi uthate hain.

I remember hearing a number of childhood stories where Kasturi Hiran keeps running all over the Jungle in the search of the sweet smell that surrounds it, but is never able to find the source of it, which in fact lies not outside it, but inside. This is often compared to the search of man for God wherein he keeps looking all over the world, builds temples, mosques, churches, et all for the said purpose and wages bloody battles on those who follow religions different from his own, never realising the fact that God resides inside him and not outside.

But this is for the first time in my life that I am actually holding the body part of the said deer which is responsible for the restlessness of the beautiful creature.

The smell is so great that I am tempted to purchase one for myself. But I am not very sure of her claim that they just pick up those pieces that fall out naturally from its body and do not kill the animal in order to acquire it. Moreover, I am not sure whether the nabhi does fall naturally at all.

Thankfully, no one in my cubicle buys the stuff either.

But wait! The lady has other things to offer as well.

She fishes out a small plastic jar from her bag and offers nails of some animal to the public. She claims they are the nails of the lion cubs whom they catch in the jungle, take the nail out from the paw of the baby and then leave it alive. The object that she is offering for Rs. 500 a pair is a single small, very sharp nail covered by soft, brown fur and in order to actually touch the nail, you have to remove the fur that is surrounding it.

Suddenly all her claims about not killing the Kasturi Hiran to procure the nabhi seems dubious. After all, how can you simply catch a baby lion, take the nails out of its paws and leave it back in the jungle? What are the chances that the poor creature will survive the injury which is bound to get infected and cause greater harms to it especially at a time when its natural immunity is still not properly developed? And why only take the nails of the cub, when you can actually take the complete skin which will no doubt fetch you a far higher price in the black markets of the wild animal body parts? Why be so generous to the baby cub?

She persuades me to buy a pair which I refuse continuously. However, the man on the upper berth opposite to me seems interested and bargains on the price. I try to persuade him not to buy. I try to put across my point by saying that there are only around a thousand tigers left in India today and that we should not buy the body parts of wild animals and encourage their poaching. But he hears me not, goes ahead and buys a pair for just Rs. 50!

Ridiculous! What peanuts are we ready to kill non-human species for?

However, the whole incident did have a lesson for me. It showed how easy it is to write blogs and forward emails to your friends asking them not to buy stuff made of body parts of wild animals and how immensely difficult it is to persuade even a single man from actually buying it in the real world. Especially, when all that you have to pay for the prized possession is just Rs 50.

Going at this rate, how long will it be before we lose all our tigers and lions and other beautiful creatures for all times to come?

Monday, March 29, 2010

कबूतर, मुंबई और मैं.




क्या आपने कभी कबूतर के पंजों से जख्म खाया है? क्या अजीब सा सवाल है? - आप शायद पूछ रहे हों. जख्म? और वो भी कबूतर के पंजों से? ये कैसे हो सकता है भाई? कहाँ एक तरफ दुनिया का शायद सर्वाधिक शांतिप्रिय प्राणी और कहाँ दूसरी तरफ आदमी, जिसने ना सिर्फ अपनी ज़िन्दगी में ही अफरा-तफरी मचा रक्खी है, बल्कि मानो पूरी सृष्टि का ही संतुलन बिगाड़ने का जैसा बीड़ा उठा रक्खा है.

मैंने खाया है कबूतर के पंजों से जख्म. और मेरी बाईं हथेली पर लगा घाव अभी भी ताज़ा है. गलती मेरी ही थी. कबूतर तो शायद फिर भी बच के निकल मात्र जाना चाहता था.

मेरे घर के सामने वाली सड़क के दूसरी तरफ एक छोटा सा मैदान है. मैदान क्या है, यों मान लीजिये कि जैसे एक छोटी सी ज़मीन है; खाली और समतल. धुल और मिट्टी से भरी हुई. मायानगरी मुंबई में सर छुपाने को एक छत मिल जाए वही काफी है, खाली और हरे-भरे मैदान के बारे में तो शायद कोई दूर दूर तक नहीं सोचता. 

कुछ दिनों पहले मैंने सुकेतु मेहता की किताब मैक्सिमम सिटी पढ़ी थी. मुंबई की इस बायोग्राफी टाइप की किताब में मुंबई का परिचय काफी डरा देने वाले तथ्यों के साथ लेखक ने दिया है. उनके मुताबिक मुंबई में पुरे ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप से अधिक लोग रहते हैं. मैंने इस बात की कभी पुष्टि नहीं की. कोई ज़रुरत ही नहीं समझी. वर्ग आठ की भूगोल की पुस्तक में लिखा था कि भारत हर वर्ष खुद में एक ऑस्ट्रेलिया जोड़ता है. मुंबई वाला तथ्य गलत हो इसकी संभावना काफी कम है.

लोगों से इस प्रकार लबालब भरे इस शहर में यदि एक-दूसरे के लिए वक़्त ना हो, तो इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए. यहाँ आदमी एक बार सवेरे जो भागना चालू होता है, तो सीधा देर रात को ही जाकर चैन की दो सांस ले पाता है. अगले दिन से फिर वही कल वाली ज़िन्दगी चालू. कई लोग तो यहाँ अपनी एक चौथाई ज़िन्दगी लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए ही काट देते हैं.

खैर! ये तो मुंबई की समस्या है. मैं तो अपने घर के सामने वाले मैदान की बात कर रहा था. मैदान छोटा सा है - धुल-मिट्टी और छोटे कंकरों से भरा हुआ. हरियाली नहीं के बराबर है. कुछ इक्का-दुक्का पेड़ अवश्य खड़े हैं इधर-उधर गुमसुम से - मानो डरे हुए हों की ना जाने कब किसी बिल्डर की नज़र इस मैदान पर भी पर जाए और कब ना जाने उनपर भी ठीक उसी तरह आरियाँ चला दी जाएँ जैसे कुछ महिनों पहले बगल वाली ज़मीन पर खड़े पेड़ों पर चलायी गयी थी.

अगल बगल अच्छी खासी अट्टालिकाओं से घिरा यह मैदान लगभग दस-बारह टीन के झोपड़ों से भरा पड़ा है. गरीबों की एक अत्यंत ही छोटी सी बस्ती है - डेली वेजर्स हैं शायद. हर दिन सवेरे काम की तलाश में निकलते हैं और देर रात वापस लौटते है. ना पानी की सप्लाई है उनके घरों में और ना ही बिजली का कोई पुख्ता इंतजाम. हाँ, एक रोड रोलर अवश्य काफी दिनों से खड़ा है उनके झोपड़ों के सामने, मैदान में एक किनारे की ओर.

कबूतर वाली घटना इसी मैदान की है.

मुंबई की एक खासियत है. लोगों के पास एक दुसरे के लिए वक़्त हो ना हो, मगर कुछ लोग हैं यहाँ जो हर सुबह और शाम को इन नादान पंछियों के लिए वक़्त अवश्य निकाल लेते हैं. ऐसा नहीं है कि ये लोग किसी एक संप्रदाय या फिर किसी एक प्रोफेशन से जुड़े हों. जहाँ एक तरफ वह एक छोटा मोटा दूकानदार है, झुग्गी में रहने वाला इंसान है, वहीँ दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी पोशाक और चाल-चलन से किसी अंतर-रास्ट्रीय कम्पनी में काम करने वाले वेल पेड प्रोफेशनल जान पड़ते हैं. हर रोज़ नियमित तौर से ये लोग बोरियां भर-भर अनाज इन पंछियों को डालते हैं. निरंतर कम होती प्रकृति से जुड़े रहने का मुंबई का यह शायद अपना तरीका है.

कबूतरों को दाना डालने के लिए दादर और खार रेलवे स्टेशनों के बाहर तो जैसे एक अलग इन्फ्रास्ट्रक्चर ही तैयार कर दिया गया है. एक छोटी सी जमीन को पक्की दीवारों से घेरकर मानो उसे इन पंछियों के ही नाम कर दिया गया हो. जिस मैदान की मैं बात कर रहा हूँ, वहां ऐसा कुछ भी नहीं है. कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर, कोई ज़मीन कबूतरों के नाम नहीं की गयी हैं. 

शामें तो अब अधिकतर ऑफिस के वातानूकूलित वातावरण में ही कटती हैं, मगर सुबह सवेरे मैंने अक्सर दो-तीन अत्यंत सामान्य से लोगों को इन पंछियों को उनका रोज का राशन देते हुए देखा है. एक बुजुर्ग से सज्जन भी आते हैं बराबर जींस और टी-शर्ट में. वो तो ना सिर्फ कबूतरों के लिए दाना लाते हैं, बल्कि सड़क के आवारा कुत्तों के लिए बिस्किट भी.

मैं कुछ लेकर तो नहीं जाता, मगर जब भी सवेरे नींद खुलती है, एक बार इस जगह जरुर चला जाता हूँ. काफी अच्छा दृश्य होता है यहाँ पर. करीब सौ दो सौ कबूतर, चार पांच लोग, दर्जन भर कौव्वे और दो-तीन आवारा कुत्ते - सारे मानो एक सामंजस्य में एक-दूसरे के साथ वहां इकठ्ठा होते हैं. दाना डालने वाले लोग जहाँ दाना डाल रहे होते हैं, कबूतर उन्हें काफी समीप से घेरे रहते हैं - इतने समीप से की अगर फुर्ती के साथ एक झपट्टा मारा जाए तो एक ना एक पंछी तो हाथ में अवश्य आ जाए. कुत्ते भी आराम से कबूतरों के इस झुण्ड में घुमते हैं, मगर कभी उन्हें भी उनपर हमला करते हुए नहीं देखा.

सुबह-सुबह वहां जाना अच्छा लगता है. पंछियों को इतने पास से देखना और उनके बीचों-बीच चहलकदमी करना कहीं और संभव है या नहीं कहना मुश्किल है. आश्चर्य की बात है कि इतनी अधिक संख्या में होते हुए भी और भोजन की लिमिटेड सप्लाई के बावजूद इन पंछियों में एक अजीब सी ख़ामोशी व्याप्त रहती है - मानो वो जो भी मिल जा रहा है उसी में संतुष्ट हों. आपस में ना तो कोई कम्पीटीशन की भावना और ना कहीं जाने की कोई जल्दी.

हाँ. जब उनके बीच से गुजरता हूँ और वो कभी भाग कर तो कभी उड़ कर रास्ता देते हैं, तो उनके पंखों की फरफराहट की आवाज़ अवश्य तेज़ होती है; और तेज़ होती है उन पंखों से निकलकर शरीर को छू जाने वाली ठंढी प्राकृतिक हवा भी.

Sunday, March 7, 2010

The Tiger I Touched and Their Present Day Status.

                                                                      
                                                                            
It has been 13 long years to this incident and to this day I regret not having even a single photograph of it. My father never invested in a camera. He is probably not interested in one, probably not even in the normal day to day use of the equipment.

The day I speak of is one of the most exiting days of my life. After all, it is not every day that one gets to touch a living, fully conscious, grown up tiger. And not many people in the world can claim to have done so, can they? Yes dear, you read it right. I have had the good fortune of getting as close as one can possibly get to one of these magestic animals. And so has been the case with my brother. We did that together.

If I remember it correctly, it was 7th of June, 1997. Just one day back we had come to Patna from Muzaffarpur to board the (very) early morning Danapur-Tata Express, the train we usually took to go to Vidyapith at the end of our one and a half month long vacation. Although she seldom did so, this time Maa had also decided to come along. We were staying put at the place of Munni Bua, and had a full day to kill and not really many places in the town to pay a visit to.

It was at the morning breakfast table that bua suddenly suggested that we must go to the Sanjay Gandhi Jaivik Udyan, the Patna zoo. A few days back, Boski Didi's school had taken her whole batch out for a picnic there. And she had come back with this information regarding a grown up tiger there which could be touched, obviously in the presence of Ram Pyare, the guy who was responsible for taking care of the animal.

So, as soon as our breakfast got over, the four of us - Maa, Papa, myself and my brother - left for the zoo. Bua had decided to stay back as she had some more mundane things to take care of.

Now, as is the case with most of the cities of our generation, Patna zoo happens to be an oasis in an otherwise desert. Full of greenery and an island of tranquility, this is sadly the last and the most open space left in an otherwise over-crowded, tightly packed city.

Once we were in, finding the place of the tiger was not a difficult thing to do. Ram Pyare and his tiger were obviously the hottest news those days on the zoo campus. I remember Googling Ram Pyare out a couple of years down the line when I was in my college, and I was delighted to find an article regarding him in India Today. Sadly, I am not able to find that link now. However, one page concerning him still happens to be on the net and interested readers may go to it by clicking here.

Although I am not an expert in this matter, with its orange skin and black stripes, I am pretty sure the tiger that I am talking about was a Royal Bengal tiger. It was 'kept' in front of the white tiger cage. On its left was another big enclosure with 3-4 similar looking Royal Bengals in it.

The time we reached the place Ram Pyare was not there. Yet, to our utter surprise, the only thing separating the completely unchained tiger (or was it a tigress?) from the visiters to the zoo was an iron fence not more than 2 feet high. If it had so wished, our tiger could have easily jumped the fence and gone for a long, solitary walk anywhere in the zoo, putting the whole system in disarray. Instead, completely oblivious of the onlookers and its eyes tightly shut, all it chose to do was to lie down lazily in the bright early noon sunlight. Oh! What a breathtakingly beautiful sight it was! I have never been to any Wildlife Park in my life and this remains the most free tiger I have ever come across.

After around half an hour, Ram Pyare came along to pay a visit to his tiger. Short, dark skinned and shabbily dressed, he was just like any other person one can ever come across. I and my brother were exited. The ultimate purpose of our visit to the zoo was to touch the tiger, not just to have a look at it and go back home. That we will get a number of chances to do. This was a life time opportunity. We urged our father to talk to Ram Pyare and get us an opportunity to do that. Luckily he obliged. Maa was shit scared, but by the time she could start protesting, Papa had already started talking to Ram Pyare.

The time we were waiting for since morning had arrived.

Once Ram Pyare was inside the fence, he called us to join him. The instruction given to us was simple. We will get a very brief duration to touch the hind legs and the back of the animal and then we will get out fast. While we did so, Ram Pyare was stroking the tiger on its face, sitting comfortably on its side. So, we touched the dream animal on its hind legs. And, my good gracious god, what a soft skin it had! Isn't it surprising for an animal so feared of to have a skin so soft?

While the memory of that day will always be alive with me, sadly it is the tigers themselves who are facing extinction. So much so that in order to publicise the plight of the jungle cat (and obviously to serve its own corporate needs), a mobile company - Aircel - has come up with an advertisement in collaboration with the World Wildlife Fund. I have a television set at home, but I have decided not to have cable connection as I find it to be less entertaining and more irritating. As a result, I have not seen the concerned advertisement till now. I am sure it must be a great ad. But isn't it sad that we the humans have brought the world to such a stage that we need to come out with advertisements in order to help equally important lifeforms survive?

India has already lost all of her Cheetah-s and I am afraid the day is not far when, in spite of all these cosmetic efforts, the country will lose all of its Panthera Tigris population as well. From around 40,000 at the turn of the 20th century to 3,642 in 2002 and 1,411 in 2008; their numbers have come down really fast. It will be a dark day indeed, if it ever comes, when my children will ask me to show a tiger to them and the closest thing that I would be able to do would be to tell them this story of my personal, friendly encounter with one of them.

Panthera Tigris: Going! Going!! .. Thankfully NOT YET Gone Away.                                      

Thursday, February 4, 2010

Pigeon Protest.



Clicked these photographs inside The HyperCity Mall, Malad a few days back.




Don't they seem to say? : "Humble-most part of the nature though we are, we still protest against the illogical encroachments that you self-proclaimed civilised humans keep making on our living spaces."