Tuesday, June 22, 2010

विद्यापीठ - मार की वह शाम.


बचपन से ही मैं काफी शांत स्वभाव का बालक रहा हूँ. यही कारण रहा कि ज़िन्दगी में कभी अधिक मार-पिटाई नहीं खाई. माँ और पापा की भी कभी हाथ उठाने की आदत थी नहीं, इसलिए भी शायद मार खाने से घर पर हमेशा बचा रहा. पापा से तो एक बार फिर भी याद है कि एक थप्पर खाया था. कारण था - वो मुझे, जब मैं कक्षा ३ में था, गणित का एक प्रश्न काफी देर से समझा रहे थे, और मैं था कि समझने का नाम ही ना ले रहा था. पर माँ से तो पक्का याद है कि कभी भी मार नहीं खाई - वो थी भी तो काफी शांतिप्रिया, कम और काफी समझ-बुझ कर बोलने वाली महिला. इसी कारण वश उस कब्रिस्तान भ्रमण की घटना (इसपर फिर कभी) के बाद भी, जब बोस्की दीदी और नितिन भैया को मार पर रही थी, मुझे माँ ने एकांत में शांत भाव से  नसीहतें भर दे कर बख्श दिया था.

बचपन का अधिकतर भाग होस्टल में ही गुजरा. ताबड़तोड़ मार भी वहाँ पड़ती थी बच्चों को गलतियाँ करने पर - ४०० बच्चों की मंडली को काबू में कर पाना कोई आसन काम तो होता नहीं है.  मगर फिर भी ना जाने क्यों वहाँ भी, एक-दो वाकयों को छोड़कर, लगभग साबूत ही बच गया मार खाते-खाते.

पहली बार  मार का जो वाकया याद आता है, वो रिखिया की घटना है. रिखिया देवघर से कुछ दूरी पर यूँ कहिये एक छोटी सी टाउनशिप है. वही क्लास ४ और ५ के बच्चों को ले जाया जाता था एनुअल पिकनिक के लिए. स्कूल रामकृष्ण मिशन का था इसलिए भजन, इत्यादि पर भी जोर काफी रहता था. शाम का वक़्त था, पिकनिक लगभग समाप्त हो चली थी और हमें चलने से पहले कुछ मंत्रोच्चार करना था. बच्चे थे कि सुन ही नहीं रहे थे. फिर क्या था, शक्ति महाराज की छड़ी उठी और कम से कम ४-५ लोग जो सामने दिखे वो उसकी चपेट में आ गए. मैं भी उनमें से एक बदनसीब था.  

ख़ैर! ये तो थी सामूहिक पिटाई में लपेटे में आ जाने वाली बात. असली और ज़िन्दगी की सबसे भयंकर पिटाई सम्बंधित घटना तो शुभंकर महाराज के हाथों सम्पन्न हुई थी. शुभंकर महाराज विद्यापीठ में प्रिंसिपल थे. दिनचर्या स्कूल की कुछ ऐसी थी कि हर शाम को आरती के बाद दो घंटे की स्टडी होती थी - यह वक़्त दिया जाता है स्वाध्याय के लिए. मैं वर्ग ८ में था, मौसम बरसात का था और स्टडी अभी शुरू हुआ ही चाहती थी. बच्चे अपना-अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे. वातावरण में हलचल अभी भी व्याप्त थी, हो-हल्ला हो रहा था. मुझे ना जाने क्या सूझी कि मुँह में उँगलियों को भरकर सिटी मारने की कोशिश करने लगा. शुभंकर महाराज अपने राउंड पर थे और बाई-चांस उनकी नज़र मेरी इस हरकत पर पड़ गयी ..

फिर उसके बाद बाकी क्या बचा था? उनकी छड़ी थी, मेरा शरीर था और स्टडी हौल के सामने पसरा वह करीब १०-१२ मी. लम्बा अहाता था. महाराज अहाते के एक कोने से जो छड़ी बरसाना शुरू करते, तो दूसरे कोने पे ही जाकर थमने का नाम लेते थे. और फिर यही प्रक्रिया अहाते के दूसरे कोने से लेकर पहले कोने तक दोहराई जाती थी. साथ ही साथ वो कहते जाते थे - शिटी मारबे? तोमरा बिबेकानोंदेर छेले! एटा-इ शिखेछो एखाने ए-शे? निर्लोज्जो कोथाकार. एतो-टुकोवो लोज्जा पावो नि?  

सारा स्टडी हौल सहसा पल भर के अन्दर इस प्रकार शांत हो गया था मानो वहाँ कोई हो ही ना. इससे पहले की महाराज मुझे बख्शते, मार खाते-खाते लगभग १५-२० मिनट तो हो ही गए थे. यह बात अलग है कि उस शाम जी.के. की परीक्षा के बाद लौटते वक़्त गोरा दा मुझे पकड़ कर महाराज के ऑफिस ले गए थे. महाराज ने मुझे समझाया था - तोमरा तो बिद्यापिठेर छेले. तोमरा-ई  जोदि बाईरेर छेलेदेर मोतो कौरबे तोबे ए-खाने पौरा-शोना कौरले की लाभ?  फिर वही, जो वहाँ जेनरली हुआ करता है, महाराज ने मुझे समझा-बुझाकर इक्लेअर्स की दो टॉफियाँ हाथ में थमा दी थीं.

विद्यापीठ में मार खाना कोई बड़ी बात नहीं थी. ४०० लोगों में से कोई ना कोई तो हर दिन मार खा ही जाता था. पर हाँ, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, यही एक घटना है ज़िन्दगी में, जब मैंने  बे-इंतहां मार खायी थी. चलो, यह भी सही ही रहा - विद्यापीठ में ९ साल रहा और मार एक बार भी नहीं खाई तो फिर रह कर किया ही क्या?

और सबसे दिलचस्प बात जानते हैं क्या है? मार जिस सिटी की वजह से खाई वो आज भी कितनी भी कोशिश क्यों ना कर लूं, मुझसे बजती ही नहीं.

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विद्यापीठ की कुछ ऐतिहासिक छड़ियाँ -
१) ब्लैक पाइप - यह शक्ति महाराज की छड़ी थी. चोरी हो गयी थी एक दिन महाराज के कमरे से और शाम को मीटिंग के दौरान नोटिस भी आई थी कि जिसने भी उसे चुराया है, वापस कर दे. आज भी सोचता हूँ कि इस नोटिस का अभिप्राय क्या था?  क्या महाराज ने सही में यह आशा लगा रखी थी कि जिसने भी यह गुस्ताखी की है, वह छड़ी वापस कर देगा? ख़ैर, छड़ी वापस नहीं होनी थी, सो नहीं हुई.
२) समझावन सिंह और बुझावन सिंह - निरंजन महाराज की दो बदनाम छड़ियाँ. निरंजन महाराज परसेंटेज में मारा करते थे. जितनी बड़ी शैतानी, उतना अधिक परसेंट. सीधा और सरल हिसाब.

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१) शक्ति महाराज आजकल वृन्दावन आश्रम में हैं. वृन्दावन में रामकृष्ण मिशन का एक काफी बड़ा चैरिटेबल अस्पताल है और महाराज उसी के सचिव हैं. वर्ष २०००  में जब महाराज का तबादला वृन्दावन हुआ था, तो काफी गार्जियंस ऐसे थे जो रो पड़े थे. विद्यापीठ को शक्ति महाराज के बिना तब सोंच पाना भी एक कठिन काम था.
२) शुभंकर महाराज आजकल किस आश्रम में हैं, पता नहीं.
३) निरंजन महाराज फिजी में बसे भारतीये मूल के लोगों के वंशजों में से हैं. विद्यापीठ से तबादला होकर महाराज कुछ दिनों के लिए इंस्टीच्युट आफ कल्चर, कोलकाता में थे. अभी रामकृष्ण मिशन के नादी (फिजी) शहर में स्थित आश्रम में हैं.

4 comments:

Andy said...

Neel...Bhai mazza aa gaya pad ke...puraane din yaad aa gaye..hy between Mohan Maharaj ka "DAAG" bhi kaafi famous tha...

Abhishek Neel said...

हाँ यार कुछ-कुछ याद तो आ रहा है .. पर मैं मोहन महाराज के धाम में कभी रहा नहीं, इसलिए 'दाग' के बारे में ठीक से नहीं पता .. वैसे मोहन महाराज की इंस्टैंट पोएट्री भली भाँती याद है .. एक उदाहरण -

जाएगा कहाँ,
आना है यहाँ.
खायेगा डांडा,
हो जाएगा ठंडा.

हे .. हे .. इसे आर्टिकल में ही डालना था .. भूल गया.

Shubhankar said...

Aah!! brought back the memories... humne bhi bas ek baar major tarike se maar khaayi thi shakti maharaj se...us samay to kaafi bura laga tha bina baat maar khaane ke liye...but now it is an intrinsic part of my so much cherished memories of Vidyapith.. 2-3 aur peetaiyon ke instances hain jo kabhi nahi bhool sakta..

Ankit - Nandi da
PD - Ajay da
Himadri - Udit da

Brings a smile whenever I think of them.. :) :)

Abhishek Neel said...

सही बोले यार .. वो भी क्या दिन थे जो लद गए .. अब तो बस घर से दफ्तर है और दफ्तर से घर है .. उस समय मार खाने में भी एक मज़ा था .. और इनोवेशन भी .. वो पॉइंट वाला सिस्टम याद है या नहीं? गज़ब का आइडिया था .. ;-)


हिमाद्री वाला इंसिडेंट तो काफी अच्छी तरह याद है .. उदित दा ने डायेलोग मारा था - तेरे जैसे कितनों को पैदा कर सड़क पड़ छोड़ दिया .. काफी दिनों तक हमारे बैच का स्टेपल जोक था वो ..


अब तो कोई मारने वाला भी नहीं बचा ज़िन्दगी में ...