बिट्टू!! उठेगा नहीं? अबेर हो गया है. गंगाजी जाना नहीं है निहाने के लिए? - दादी मच्छरदानी खोलती जाती है और मुझे उठाने की भी कोशिश करती जाती है.
मैं अनमने भाव से करवट बदलता हूँ और तकिये के बगल में पड़े मोबाइल में समय देखता हूँ. साढ़े ४ बजे हैं अभी सिर्फ .. सुबह के साढ़े ४. बाहर छत पर धुंधलका अभी भी पसरा हुआ है.
अब दादी की आवाज़ बगल के कमरे से आ रही है .. वो अब प्रयत्नशील है ख़ुशी और बुन्नु को बिस्तर से बाहर निकालने के लिए.
कुछ देर बाद मुँह-हाथ धोकर हम सब गंगाजी की दिशा में रवाना होते हैं .. अँधेरा अभी भी पूरी तरह से छंटा नहीं है, पर गंगाजी की तरफ लोग अच्छी-खासी संख्या में मुखातिब हैं.
पर गंगाजी हैं कि वो अब खुद पहले वाली गंगा नहीं रहीं. जो सड़क हमारे घर से गंगाजी की ओर जाती है उसके गंगाजी वाले सिरे पर पीपल का एक बुढ़ा पेड़ काफी दिनों से खड़ा है. करीब ७-८ साल पहले तक गंगा का विस्तार इस पीपल से मुश्किल से करीब १५-२० मी. की दूरी पर हुआ करता था. पर अब गंगा इस स्थान से करीब ३-साढ़े ३ किलोमीटर की दूरी पर बहती है. पता नहीं यह बदलते हुए मौसम-चक्र का दुष्परिणाम है या गंगा ने मात्र अपना रास्ता बदल लिया है.
पहले जहाँ गंगा बहती थी, वहाँ अब बरसात को छोड़ बाकी सारे वर्ष खेती होती है. हाँ, बरसात के दिनों में यहाँ भी लबालब पानी भर जाता है .. पानी का इतना भयंकर विस्तार - सोंचकर ही कपकपी सी हो जाती है. पीपल के पेड़ की छांह में बैठे बूढ़े बाबा ना जाने कैसे हमारी बातें सुन लेते हैं और पीपल से कुछ दूर एक हलकी सी ऊँची जगह की ओर इशारा कर खुद-ब-खुद कहते हैं - जे दिन एतना पानी परतउ कि ई ऊचाई तक छू जेतउ उ दिन समझ ले पटना दू-मंजिला इमारत तक डूब जेतउ.
गंगाजी में नहाने का कार्यक्रम हर दिन का है. हम रोज़ सुबह ४-साढ़े ४ बजे तड़के उठते हैं और गंगा तक की साढ़े ३ किलोमीटर की यात्रा सम्पन्न करते हैं. छोटा सा दल है हमारा - दादी, छोटा बाबू, मैं, ख़ुशी और बुन्नु .. पहले दो-तीन दिन निशु और नितिन भैया भी साथ थे. हर दिन स्नान के दौरान छोटा बाबू ख़ुशी और बुन्नु को पानी में ले जाकर छोड़ देते हैं. कहते हैं - जब तक डूबेगा नहीं, हेलना कैसे सीखेगा? और वाकई, ख़ुशी १०-१२ दिनों के अंतराल में में ही तैरना सिख गयी है .. अब बस आवश्यकता है तो थोड़े-बहुत अभ्यास की. स्कूल खुलते-खुलते आशा है वो एक ठीक-ठाक तैराक तो हो ही जायेगी .. स्कूल खुलने में अभी ३ सप्ताह बाकी भी तो हैं ..
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दूकान से घर और घर से दूकान करते-करते महनार में दिन किस तेज़ी से बीतते हैं पता ही नहीं चलता. एक दोपहर जब मैं और ख़ुशी दूकान पर अकेले हैं तो हम जोड़ने की कोशिश करते हैं कि कितनी सारी ऐसी दवाइयां हैं जिनका स्थान हमें पता है और जिन्हें हम छोटा बाबु की अनुपस्थिति में भी बेच सकते हैं .. जोड़-जाड़ के ब-मुश्किल २५-३० माल ऐसा निकलता है जिसके स्थान के बारे में हमारी जानकारी पुख्ता है. अगर इस बात को ध्यान में रखा जाए कि मैं साल में मुश्किल से दो-चार दिन ही महनार आ पाता हूँ और ख़ुशी भी पढ़ाई के लिए पटना में ही रहती है, यह अंक भी शायद एक बड़ी उपलब्धि ही है.
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घर से जाते-आते रास्ते में लगभग हर कोई मुझे यहाँ पहचानता है .. मगर मैं लगभग किसी को भी ढंग से नहीं जानता. लोग हैं जो अनायास ही पूछ बैठते हैं - त? महनार अब अईसे ही चलतउ? ज़िन्दगी बम्बैय्ये में गुजार देना है या घर भी कभी आना है?
एक शाम लावापुर वाले दादाजी घर आते हैं, मुझे देखकर कहते हैं - महनार आते रहना. ज़िन्दगी में कुछ रखा है? कुछ नहीं रखा.
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महनार से निकलने वाले दिन तय होता है कि मैं छोटा बाबू के साथ ही मोटर-साइकल पर पटना चला जाऊंगा. दोपहर तक हमें निकलने की बात है, मगर दूकान बंद करते-करते और निकलते-निकलते रात के नौ हो जाते हैं. रास्ता लगभग सुनसान ही है .. बस बीच-बीच में दो-चार बाज़ार हैं जहाँ अभी भी चहल-पहल है. इसके सिवा मौसम लगन का है, इसलिए कहीं-कहीं इक्का-दुक्का बारातें भी मिल जाती हैं .. इसके सिवा हर तरफ अँधेरा पसरा हुआ है और ख़ामोशी है जिसे बस हमारी बातचीत और गाड़ी की आवाज़ ही भंग कर रही है. छोटा बाबू मोटर-साइकल काफी संभल कर चलाते हैं - ३०-३५ की स्पीड से गाड़ी कभी ऊपर नहीं जाती .. मैं बार-बार कोशिश करता हूँ कि हाथ की मुट्ठियों में महनार को जकड़ लूं मगर महनार है की ३०-३५ की स्पीड से ही सही मुट्ठियों में कैद रेत की मानिंद फिसलता चला जाता है .. अब फिर से एक लम्बा अंतराल होगा ८-१० महीने का इसके पहले की मैं वापस महनार आ सकूँ ..
P S - ये सारे घटनाक्रम जून, २०१० के प्रथम दो सप्ताह के हैं. काफ़ी दिनों से यह पोस्ट लिख रखा था, पर लैपटॉप के अभाव में तस्वीरें मोबाइल से लैपटॉप पर ट्रांसफर नहीं हो पायीं थीं.
छद्म किसान का असल परिवार - मैं, ख़ुशी, दादी और बुन्नु - गंगाजी के रास्ते में - पृष्ठभूमि में पसरी सारी ज़मीन कभी गंगा का अभिन्न अंग हुआ करती थी. आज भी बरसात के मौसम में यह हिस्सा पानी से लबालब भरा होता है.
मैंने हल भी चलाया - ज़िन्दगी में पहली बार.
बुन्नु बाबू की ख़ुशी तो देखिये - हल क्या जोत लिया मानो दुनिया की सारी खुशियाँ इनके झोले में आ गयीं.
दादी और मैं - गंगा स्नान के बाद गंगा को पूजते हुए.
P S - ये सारे घटनाक्रम जून, २०१० के प्रथम दो सप्ताह के हैं. काफ़ी दिनों से यह पोस्ट लिख रखा था, पर लैपटॉप के अभाव में तस्वीरें मोबाइल से लैपटॉप पर ट्रांसफर नहीं हो पायीं थीं.
2 comments:
जब हम पृथ्वी नात्य्ग्रिहा में मिले थे तब मुझे ज़रा सी भी भनक नहीं थी की तुम इतनी अच्छी तरह हिंदी में अपनी सोच, अपना अनुभव व्यक्त कर सकते हो! महनार के बारे मैं पढ़कर ऐसा लगा जैसे मैं खुद वहां जाकर आया हूँ...और इसका पूरा श्रेया तुम्हारे लेखन को हैं....काफी दिनों बाद इतनी शुद्ध हिंदी और इतने अच्छे लेखन का परिचय हुआ हैं....फिर लौटूंगा यहाँ और पढने के लिए! :)
प्रिय गौरव भाई,
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद मेरे लिखे को पढ़ने के लिए.
विद्यालय की शिक्षा पूरी करने के बाद हिदी से एक संबंध-विच्छेद सा हो गया था. हिन्दी में लेखन उसी परस्पर बढ़ती हुई खाई को कम करने की एक कोशिश है.
यह जानकार काफ़ी अच्छा लगा कि मेरा लेख इतना सशक्त है कि आपको महनार तक ले जा सके.
धन्यवाद.
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