Friday, August 6, 2010

क्यों लिखता हूँ हिंदी में?



सीधा सा जवाब है - भई हिंदी भाषी हिन्दुस्तानी हूँ इसीलिए. अगर पाकिस्तानी होता, तो अवश्य हिंदी में ना लिखकर उर्दू में लिख रहा होता. पर ईश्वर की असीम अनुकम्पा से वो तो मैं हूँ नहीं.

पर क्या जवाब वास्तव में इतना सीधा-सरल है? शायद नहीं. सीधा होता तब, जब यही सवाल किसी जापानी, फ्रेंच, जर्मन या चीनी से पूछा जाता कि भई आप अंग्रेजी में ना लिखकर जापानी, फ्रेंच, जर्मन या चीनी भाषा में क्यों लिखते हो?  पर हम हिन्दुस्तानियों के साथ मुझे नहीं लगता कि ऐसा है.

लोग हैं जो अक्सर यह पूछ बैठते हैं - "आप बिहारी हो?"

"हाँ. हूँ." - मैं जवाब देता हूँ. और यदि पूछने वाला राज ठाकरे जैसी मानसिकता का शिकार नहीं है तो अक्सर मुझे यह पता होता है कि अगला प्रश्न क्या होने जा रहा है. 

"फिर तो आप बिहारी जानते होंगे?" - अगला प्रश्न. पता नहीं क्यों काफ़ी लोगों को ऐसा लगता है कि "बिहारी" कोई भाषा भी है.

"जी नहीं, बिहारी तो मुझे नहीं आती. और बिहारी कोई भाषा है भी नहीं. हाँ, बिहार में बोलियाँ अवश्य कई सारी बोली जाती हैं जैसे की भोजपुरी, मैथिलि और बज्जिका. मैं बज्जिका-भाषी प्रदेश का रहने वाला हूँ, पर खेद इस बात का है कि मुझे बज्जिका भी नहीं आती." - मैं अपनी इज्जत को ताक पर रख देता हूँ. 

हाँ! यह शत-प्रतिशत सही है कि मुझे अपनी ही बोली नहीं आती. नानाजी नौकरी-पेशा थे और एक ट्रांसफरेबल जॉब में थे, शायद इसी वजह से माँ को कोई स्थानीय बोली नहीं आती थी. नतीजतन घर में हमेशा हिंदी का ही प्रयोग हुआ. कक्षा ४ से हॉस्टल में था इसलिए महनार आना जाना भी छोटी-छोटी छुट्टियों में ही हो पाता था. इसलिए बज्जिका भाषा से बदकिस्मती से अछूता ही रह गया. (यह बात अलग है कि विद्यालय में बंगाली की पढ़ाई होने के कारण बंगाली सिख गया. पर बंगाली को जानना बज्जिका को नहीं जानने का बहाना तो नहीं हो सकता ना?)

फिर दूसरा प्रहार तब हुआ जब विद्यालय से दशम वर्ग कि परीक्षा उत्तीर्ण की.  इससे पहले की भाँप पाता, हिंदी से भी धीरे-धीरे कब दूरी बढ़ती चली गयी पता ही नहीं चला. पहले तो वह कक्षा ११ और १२ के पाठ्यक्रम से गायब हुई, और फिर आहिस्ता-आहिस्ता अखबार तक अंग्रेजी हो गया. हद तो तब हो गयी जब यह पाया कि भई हिंदी सिनेमा में भी हिंदी की देवनागरी लिपि का नहीं बल्कि अंग्रेजी की रोमन लिपि का प्रयोग हो रहा है. बताइए, हिंदी को सशक्त करने का सबसे सटीक तरीका शायद हिंदी सिनेमा ही होगा, और हिंदी वहाँ से भी निकाल बाहर की गई. यह तो गनीमत है कि ऐसी स्थिति अभी तक अन्य भाषाओं की नहीं हुई है. और शुभ यह है कि आजकल कई हिंदी टी.वी. सिरिअल्स देवनागरी लिपि का प्रयोग करते दिख रहे हैं. 

यह सिर्फ हिंदी की नहीं, बल्कि कमोबेश इस देश की तमाम भाषाओं की वेदना है. देश इतना वृहद् और विभिन्नता भरा है कि इस देश को एकजुट रखने का और परस्पर एक दूसरे को समझने-समझाने का सारा श्रेय अकेली अंग्रेजी के झोले में चला जाता है. ऊपर से समूचे विश्व में शायद हम ही एकमात्र ऐसे देश हैं जहाँ सारी की सारी आर्थिक तरक्की एक मूलतः विदेशी भाषा के कन्धों पर टिकी है. मजाल है किसी की जो अंग्रेजी ना जानते हुए भी इस देश में एक अच्छा कार्पोरेट करिअर बना ले? जापान, फ्रांस, चीन या जर्मनी में तो ऐसा नहीं होता? और ये सारे के सारे राष्ट्र विश्व-भाषा अंग्रेजी को ना जानते हुए भी हमसे कहीं अधिक बड़ी आर्थिक ताकतें हैं. 

ज़िन्दगी जीने की दौड़ में लगे-लगे हिंदी कब व्यक्तिगत रूप से भी बस बोलचाल की भाषा बनकर रह गयी पता ही नहीं चला. स्कूल, कॉलेज की पुस्तकें अंग्रेजी में, हिंदी सिनेमा अंग्रेजी में, दुकानों के बोर्ड्स अंग्रेजी में. यहाँ तक की आजकल छोटे से छोटे होटलों के मेनू कार्ड्स भी अंग्रेजी में ही होते हैं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अंग्रेजी सही में हमारी ताकत है या केवल आज-तलक गुलाम-मानसिकता में जकड़े होने का प्रमाण. राजनैतिक नेताओं के तरीकों से मैं इत्तेफाक नहीं रखता, पर हाँ इतना अवश्य मुझे समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी ही मातृभाषाओं को होटलों के मेनू कार्ड्स, दुकानों के बोर्ड्स या सिनेमा के पर्दों पर बराबर की जगह क्यों नहीं मिल सकती? 

एक बात है, अंग्रेजी चाहे कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों ना हो जाए, रहेगी वह हमेशा व्यापार की भाषा ही. उसका सम्बन्ध हमेशा पेट से पहले होगा और दिल से बाद में. और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से हैरान-परेशान इंसान कितना भी अंग्रेजी में टाएँ-टाएँ क्यों ना कर ले, सुकून के, अपनत्व भरे दो पलों के लिए वह वापस अपनी मातृभाषा की तरफ ही मुखातिब होगा - फिर उसकी मातृभाषा चाहे हिंदी हो, मराठी हो, बंगाली, पंजाबी, कन्नड़, मलयालयम, मणिपुरी हो या उन १,६५२ भाषाओँ में से कोई हो जो इस देश में बोली जाती हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता. विश्वास नहीं होता तो अपनी भाषा में लिखी कोई साहित्यिक किताब उठाकर देखिये कि वह किस प्रकार आपको मरुभूमि सरीखे ताप से भरे व्यापार जगत से दूर किसी ठंढे, शांत, सुरम्य प्रदेश में ले जा छोड़ती है. 

जब ब्लोगिंग शुरू की तो अंग्रेजी में की. हिंदी से दूरियाँ इस कदर बढ़ गयीं थी कि यह सोच पाना भी मुश्किल हो गया था कि कभी अपनी ही भाषा में कोई ढ़ंग का आर्टिकल लिख पाऊँगा. पर फिर एक कोशिश की तो पाया कि थोड़े से परिश्रम की आवश्यकता है - हिंदी लेखन को भुला नहीं हूँ, बस वह पीछे कहीं खो भर गया है. बस तभी से कोशिश यही है कि अपने हिंदी लेखन को और सशक्त किया जाए और अपने इस ब्लॉग को एक द्विभाषीय ब्लॉग का जामा पहनाया जाए. 

हिंदी में बस इसलिए नहीं लिखता कि एक हिंदी-भाषी हिन्दुस्तानी हूँ, बल्कि इसलिए कि हिंदी में लेखन पूजा है, प्रायश्चित है, साधना है, भक्ति है, इण्डिया बनने की होर में दूर कही पीछे छूटते भारत को पकड़े रहने की कोशिश है. हिंदी में इसलिए लिखता हूँ क्योंकि हिंदी में लेखन एक ज़रिया है खुद को ढूंढ़ निकालने का.


PS - विकिपीडिया के मुताबिक १९६१ में हुए सेन्सस में यह पाया गया था कि भारत में कुल १,६५२  मातृभाषाएं हैं. सम्बंधित आर्टिकल के लिए यहाँ क्लिक करें. 

10 comments:

Alok Abhijit said...

Accha hai! Aaaj iss vaishwikaran ki hod mein koi to hai jo wapas apni desh ki bhasa ki oor mukhatib hai!! Wajah jo bhi ho... aur likho...is shubhkamana ke saath!

Abhishek Neel said...

धन्यवाद आलोक दा. हौसला अफ़ज़ाई के लिए. ;-)

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

हिन्दी ही बोलिए आखिर ये हमारी माँ है और बोलियाँ भी अपनी जगह ठीक हैं पर वह राष्ट्र-भाषा का स्थान नहीं ले सकती हैं.

Abhishek Neel said...

गुरुदेव,

सही फ़रमाया आपने. पर इस लेख में राष्ट्रभाषा बनाम गैर-राष्ट्रभाषा की बात नहीं हो रही है. दिक्कत तो ये है कि हिन्दुस्तान की कई सारी भाषाएँ धीरे-धीरे विलुप्त होने की ओर अग्रसर हैं. फिर वह राष्ट्रभाषा हिंदी हो जिससे की पढ़े-लिखा समाज अनजाने ही सही एक दूरी बनता नज़र आता है, या फिर कोई और ही भाषा.

अभिषेक.

Dhruv Jain said...

Acha likha hain....marathi manus tumhe bahut pareshan kar rahe hain lagta hain hame

Abhishek Neel said...

अरे नहीं यार. ऐसा क्यूँ लगा भाई? ऐसी तो कोई भी बात नही है.

Anonymous said...

Though I dont read Hindi with ease, I could make out what you were trying to convey.
Nice meeting you at Indiblogger meet.

Abhishek Neel said...

Thanks dude. It was nice meeting you as well.

Unknown said...

कहीं न कहीं हम अभी भी अपनी गुलामी की मानसिकता से बहार नहीं निकल पाए हैं .....या फिर लगता है की हम अपनी भाषा एवं संस्कृति को इतना पीछे छोड़ आये हैं की वहां तक वापस पहुँचने के लिए एक निश्चय और जज्बे से भरी क्रांति की आवश्यकता है |

बहुत ही अच्छा लिखा है .....:)

Midnight said...

Hi Abhishek,

I hope you don't mind me gatecrashing your blog and commenting here.

I'm one of those Hindustanis who have become distanced from Hindi. I remember enjoying the Hindi literature I studied in school but that seems like a different lifetime now. Anyway, it took me a long time to read your entire post as I have become so unfamiliar with the script over the past 16 years or so. But I was determined and am glad I read it.(For one, I feel a sense of real accomplishment!)I enjoyed the post but I must admit I felt ashamed at my child-like level of reading!

There are a couple of things I wanted to say, though.

Do you realise how many English words you have used in your post? Isn't English simply ubiquitous?

I don't agree that English is merely a language of commerce for Indians. I feel very strongly that Indians have made English their own and in fact are confident and brilliant masters of the language. Literature from the Indian subcontinent is one of the superior strands of English literature currently being generated.

Finally, the use of English in places like restaurant menus is cultural evolution. I don't think there should be any overt interference (like political, for example) in trying to 'correct' that. Reeks of culture policing which every liberal fibre in my body screams against!

Thank you for my pleasurable reading experience!
Smitha