अँधेरा था उस वक़्त! बिजली थी
नहीं ... कभी रहती ही नहीं थी!!
आँगन के एक छोड़ पर स्थित बूढ़े दादाजी का
कमरा हमेशा की तरह बंद था। मैंने उसे कभी खुला देखा हो, ऐसा याद
नहीं पड़ता ... जब वो ज़िंदा थे और हम बच्चे घर से हर दोपहर उनका खाना लेकर दुकान पर
आया करते थे, तब भी नहीं। आज सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है
... बूढ़े दादाजी तो दुकान पर बने इसी कमरे में रहा करते थे,
तो फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि मैंने कभी भी इस कमरे के अंदर कदम ही नहीं रखा? खैर ... अब तो उनको गुजरे एक अरसा हो चुका था। अब इस बंद पड़े, धूल-धूसरित कमरे में दुकान का कूड़ा-कचड़ा पड़ा रहता था ... दवाइयों के
कार्टन्स, पुरानी शीशी-बोतलें, रस्सियाँ, बाँस के कई-एक फट्टे और ना जाने क्या-क्या ... आधी खुली खिड़की से भीतर
झाँकने पर इस कबाड़ के नीचे दबी वह चौकी नज़र आती थी, जिसपर एक
समय बूढ़े दादाजी सोया करते थे ...
रात के पौने-८, ८ के
करीब हो रहे थे। बाहर मार्केट की चिल्लम-चिल्ली अंदर आँगन तक आ रही थी – दुकान में
खड़े गहकियों की आवाज़ें और सड़क पर से गुजरती गाड़ियों का शोर एकजुट होकर कुछ ऐसी
खिचड़ी पका रहे थे कि कानों में पड़ती ध्वनि-तरंगें कुल मिलाकर अर्थहीनता ही पैदा कर
रही थीं। जिस दरवाजे से होकर आँगन में आना होता था, उससे होते
हुए दुकान के (जेनरेटर के) बल्ब की रौशनी आँगन से सटे बरामदे पर एक मध्धम सा आयत रच
रही थी ...
मोती इसी दरवाजे पर खड़ा मेरे और दादाजी की
तरफ बिना कोई हलचल किए, एकटक देख रहा था। उसकी परछाई रोशनी के आयत आकार को बिना छेड़े, उसी के अंदर अपनी एक अलग पहचान बुन रही थी।
मेरे हाथ में टॉर्च थी। एक हाथ से मैं
चापाकल चला रहा था और दूसरे से दादाजी के पैरों पर टॉर्च की रोशनी डाल रहा था ... दादाजी
के पैरों से खून रिस रहा था जिसको रोकने और अभी-अभी हुए ताज़ा घाव को साफ करने के
प्रयास में वो पैरों में डेटौल लगा रहे थे।
मोती ने दादाजी को ही काट लिया था ... एक
गहकी की दवाई लाने को जैसे ही दादाजी ने कुर्सी से नीचे अपना पाँव रखा था ... वो
गलती से वहीं कुर्सी से सट कर बैठे मोती की पुंछ पर आ गया था और मोती ने आव देखा
था न ताव ... अकस्माक दादाजी को ही हबक लिया था।
पैर को साफ करके वापस दुकान में आए तो वहाँ
अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी ...
मोती हर शाम … शायद ही कभी हर्जा किए … दुकान पर कुछ नहीं तो पिछले ४-५ सालों से तो आ ही रहा था। गंगा किनारे से
लेकर चौक तक और इससे भी थोड़ा आगे बढ़कर ... वस्तुतः पूरे महनार बाज़ार में ... अगर
ऐसा कहा जाए कि मोती अधिक नहीं तो कम से कम दादाजी के इतना प्रसिद्ध तो था ही, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिछले कुछेक वर्षों से क्या सुबह, क्या शाम, मोती लगभग-लगभग हर-हमेशा दादाजी के साथ
ही हुआ करता था ...
ऐसे में उसका दादाजी को ही काट लेना एक
अच्छी-खासी खबर थी बाज़ार के लिए ...
जितने मुँह, उतनी बातें ...
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जोतिसे बाबू के काट लेलक मोतिया ... कईसन हरामखोर कुत्ता हई
जे मालिकबे के हबक लेलक ...
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कितनी बार जोतिस बाबू को समझाये हैं कि कुत्ताजात आखिरकार
कुत्ताजात ही होता है, इसको दुकान पर मत लाया कीजिए ... मगर किसी की सुनें तब ना ...
इस भीड़-भाड़ में आज नहीं तो कल, ये तो होना ही था ...
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कटाहा हो गया है क्या जी ... बताइये तो ... साला जिसके हाथ
से खाता है उसी को काटता है ...
दादाजी ने पंकज को मुन्ना छोटा बाबू के
दुकान भेज दिया था कुत्ते के काटने की दवाइयाँ और सुई लाने और खुद घाव की
मरहम-पट्टी में लग गए थे ... और मोतीलाल (दादाजी उसे प्रेम से मोती की जगह मोतीलाल
बुलाया करते थे) थे जो एक कोने में दुबके कभी दादाजी के चेहरे को तो कभी उनके घाव
को चुपचाप देख रहे थे। कोई कुछ भी क्यों ना कहे ... उसकी कातर,
सहमी-सहमी सी आँखें इतना तो अवश्य कह रही थी कि उसने ये जानबूझकर नहीं किया था और
कि जो भी हुआ था, उसका उसे तहे-दिल से पछतावा था।
दुकान बंद करके वापस जाते वक़्त भी अन्य
दिनों के विपरीत वो दादाजी और मेरे कुछ पीछे ही चला था ... मानो एक तो हमसे आँखें
मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हो ... दूसरे उसे शायद इस बात का अंदेशा भी हो
गया था कि आज तो उसका थकुचाना सौ-टका तय है ... घर में घुसते ही दौड़कर अंदर वाले
कमरे में रखे पलंग के एकदम सुदूर कोने में दुबक गया था ...
बबलू छोटा बाबू को पता चला था तो स्वाभाविक
तौर पर काफी गुस्सा हुए थे ... बांस की एक फट्टी से क्या मार पड़ी थी मोती को उस
रात ... बेचारा किकियाते हुए कभी इस कोना भागता था, तो कभी उस कोना ... जब तक
दादाजी रोकते, नहीं रोकते अच्छी-खासी धुलाई हो गयी थी बेचारे
की। छोटा बाबू के कहने पर खाना भी नहीं मिला था उसको, सो अलग
...
बात यहाँ तक गर समाप्त हो जाती तो चलो फिर
भी उसे आराम था ... लेकिन मोतीलाल की झोली में अभी कष्ट और परीक्षाएँ दोनों कुछ और
लिखी थीं ...
रात को बातचीत हुई और निष्कर्ष यह निकला कि
मोती कटाहा हो गया है ... जो दादाजी को ही काट खाये वो पता नहीं और कितने लोगों को
काटेगा ... ऐसे कटाहे कुत्ते का घर में रहना ठीक नहीं। साझा सहमति से निर्णय यह
लिया गया कि आज की रात मोती की आखिरी रात है घर में ... कल सुबह इसको डोम के हवाले
कर दिया जाएगा।
पता नहीं छोटा बाबू ने इतनी जल्दी कैसे किया, मगर
सुबह-सुबह डोम साहब हाजिर थे मोती को साथ ले जाने के लिए ... कमर में मटमैली पड़
चुकी, लंगोट की तरह बांधी गयी धोती,
बदन पर आधी फटी गंजी, कोयले-सा काला शरीर, लगातार मेहनत-मजदूरी करने के कारण ठीक-ठाक मांसल हाथ-पैर, यों मोटी-मोटी घनी मुछें, सर पर बेतरतीबी से बिखरे, रूखे पड़े बाल ... मानो एक अरसे से उनमें तेल ना पड़ा हो ... डोम ने घर के
दरवाजे पर ही इंतज़ार किया था ...
छोटा बाबू मोती को लेकर बाहर आए थे और उसकी
ज़ंजीर डोम के हाथों में थमा दी थी। अंदर पुजा-घर में बैठे दादाजी का एक हिस्सा अभी
भी इस बात से सहमत नहीं था कि मोती कटाहा हो गया है ... ‘जानवर है
बेचारा, गलती हो गयी ... गलती किससे नहीं होती? इसका मतलब ये तो नहीं कि उसे घर से ही निकाल दिया जाये?’ वो कमरे से बाहर भी नहीं निकले थे ...
मगर घर में किसी की कोई भी मरज़ी क्यों ना हो, इतने
बुरे तरीके से पिटने के बाद भी मोतीलाल की घर त्यागने की तनिक भी इच्छा नहीं थी। जंज़ीर
डोम के हाथों में जाने भर की देर थी और मोती ने विपरीत दिशा में, घर के भीतर की तरफ ज़ोर लगाना शुरू कर दिया था ... मानो उसे पहले से ही इस
बात का आभास हो गया था कि उसकी गलती के एवज़ में उसे गृह-निष्काषित भी किया जा सकता
है और ऐसी विषम परिस्थिति के उत्पन्न होने पर उसका क्या करना उचित होगा, उसने जैसे पहले से ही तय कर रखा था।
डोम था मजबूत। मोती ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति
डोम के विरुद्ध झोंक दी थी मगर इसके बावजूद निरीह प्राणी बेचारा कहाँ टिक पाता डोम
की इंसानी ताकतों के आगे? उसके नहीं चाहते हुए भी रूखी, ऊबड़-खाबड़ सड़क पर घिसटते-घसीटाते डोम उसे घर से १०-१२ घर आगे तक ले जाने
में सफल हो गया था ... लेकिन फिर जाने मोतीलाल ने अपने सर को किस भांति घुमाया कि
गले में पड़ा पट्टा उसके सर से निकल कर बाहर आ गया ... बस इतना होना था कि मोतीलाल
बिजली की तेजी के साथ दौड़ते हुए वापस घर में ... और सिर्फ घर में ही नहीं, बल्कि दादाजी जिस कमरे में, जिस पलंग पर थे, ठीक उसी पलंग के नीचे ... जैसे उसे अभी भी यह विश्वास हो कि कोई और ले या
ना ले, दादाजी अभी भी उसका ही पक्ष लेंगे और उसे घर से निकाल
बाहर नहीं करेंगे ... डोम जब मोती के पीछे-पीछे वापस आया तो उसने पाया कि दादाजी
मोती और लोगों के उसके घर से निकाले जाने के निर्णय के बीच में खड़े हैं ... एकदम
अडिग ...
हालांकि इसमें कोई संशय नहीं कि दादाजी को
मोती से बेहद लगाव था ... लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दादाजी कभी कुत्ता पालने
के पक्ष में थे ही नहीं ... अकसर मुझसे कहा करते थे कि किस आफत को उनके गले बाँध
दिया हूँ ... ले क्यों नहीं जाता इसे मुजफ्फरपुर अपने साथ?
वास्तव में मोती को महनार में होना ही नहीं
चाहिए था ... उसे तो दादाजी मेरे कहने पर लाए थे ...
मुझे बचपन से ही जानवरों से काफी लगाव रहा
है ... और कुत्तों से तो काफी अधिक। जैसा कई बच्चों के साथ होता है मेरी भी दिली
तमन्ना थी कि घर में एक कुत्ता हो। पापा से ज़िद की तो उन्होंने आश्वाशन दे दिया कि
अगर दादाजी महनार में कुत्ता ऊपर कर देंगे तो वो उसे मुजफ्फरपुर ले आएंगे ... फिर
क्या था ... मैंने दादाजी को अपनी तमन्ना और पापा का आश्वाशन दोनों बताए और ३-४
महीने के अंदर-अंदर मोतीलाल का महनार में गृहप्रवेश हो गया।
जिस दिन मोती घर में आया था, मैं भी
महनार में ही था। गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं। कितना छोटा सा था वो उस वक़्त!
मानो मेरी नहीं तो कम से कम दादाजी की एक हथेली में तो पूरा का पूरा अवश्य ही समा
जाए!! ज़्यादा समय नहीं हुआ था उसको दुनिया में आए ... मुश्किल से २०-२५ दिन ...
नन्हा सा, इधर-उधर लुढ़कता-पुढ़कता, अभी
भी अपने पैरों पर ढंग से खड़ा होना सीखने की कोशिश करता, गिरता-संभलता
... जीता-जागता रुई का गोला हो जैसे ... एकदम सफ़ेद ... कहीं कोई दाग नहीं ... और
मुलायम इतना कि जी में आए कि गोदी में भरकर कस के मसल दें ... दादाजी ने उसका नाम
उसके दूध-से सफ़ेद रंग से प्रभावित होकर रखा था या फिर सिर्फ इसलिए कि भारतवर्ष में
– और कम से कम गंगा के मैदानी क्षेत्रों में तो अवश्य ही – ‘मोती’ पालतू कुत्तों
का शायद सर्वाधिक प्रचलित नाम है ... ठीक कह नहीं सकता ...
पर पापा पलट गए थे ... जैसे ही उन्हें पता
चला कि महनार में मेरे लिए कुत्ता आ गया है वो उसे घर लाने के एकदम से खिलाफ हो गए
... ‘कौन देखरेख करेगा उसका यहाँ? तुमलोग (मैं और मेरा
भाई) तो यहाँ रहते हो नहीं ... विद्यापीठ चले जाओगे ... फिर कौन उठाएगा इस मुसीबत
को? ... इसको नहलाना-धुलाना, सुबह-शाम
टहलाना, खाना देना ... कम मुसीबत है क्या?’
और इस प्रकार मोतीलाल महनार में दादाजी की
देखरेख में ही रह गए ...
उसको हमारे घर का, महनार
का और दादाजी की ज़िंदगी का अभिन्न अंग बनने की ये कहानी पता हो, इसका मोतीलाल ने कभी कोई संकेत नहीं दिया ... उसे इस बात में कभी
दिलचस्पी भी नहीं रही होगी शायद ... मगर मेरे प्रति उसकी क्या भावनाएँ थी यह मैं आज
तक समझ नहीं पाया ...
घर में घुसकर, आँगन पार करके, पुजा-घर के ठीक बगल में बाड़ी में जाने के लिए पतला सा गलियारा है। इसी
गलियारे के मुँह पर मोतीलाल को सिक्कड़ से बांधा जाया करता था ... कुछ इस कदर कि
अगर किसी को भी बाड़ी में जाना है तो उसे मोतीलाल के एकदम निकट से ... एक प्रकार से
उसकी रज़ामंदी लेकर ही बाड़ी में प्रवेश मिल सकता था ... मोतीलाल को बांधे जाने वाली
इस जगह से घर का प्रवेश-द्वार डायगोनली सामने पड़ता है ... मतलब कोई भी घर में अगर बाहर
से आए तो मोतीलाल की नज़र तो उसपर पड़नी ही पड़नी थी।
एक आदत थी महोदय की ... पता नहीं बाकी
कुत्ते भी ऐसा करते हैं या नहीं ... पर मोती अकसर ही किया करता था। बंधा रहता था प्रायः
ही ज़ंजीर से इसलिए कहीं आ-जा सकता था नहीं ... जब भी कोई घर में आता था तो अपनी
पिछली दो टांगों पर खड़े होकर आगे की दो टांगों को कुछ इस कदर हवा में हिलाया करता
था मानो आने वाले को अपने समीप बुला रहा हो ...
मैं भी जब कभी महनार जाया करता था तो ऐसे ही
मुझे भी मोती प्यार भरा बुलावा भेजा करता था ... मगर जैसे ही मैं पास जाता, थोड़ा
बहलाने-पुचकारने की कोशिश करता ... वो इस कदर भौंकना चालू कर देता मानो अभी तुरंत
काट खाएगा। मुझे उसका मेरे प्रति यह बर्ताव ... पहले प्यार से, एकदम शांत भाव से पास बुलाना और फिर सहसा भौंक उठना ... आज तक पल्ले नहीं
पड़ा। धीरे-धीरे मुझे उससे हल्का-हल्का डर भी लगने लगा ... और आज तक शायद यही एक
कुत्ता है जिससे मुझे वास्तव में कभी डर लगा हो।
खैर ... दादाजी को काटने के पहले या बाद
उसने फिर कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया। उस शाम भी पता नहीं उसे क्या हो गया
था ... उसका ध्यान कहीं और रहा होगा शायद ... किसी और दुनिया में ... जहाँ से सहसा
इस दुनिया में जबरन ले आए जाने पर वो बौखला गया हो ...
. .......... .
वर्ष २००१ में जब दादाजी की तबीयत खराब हुई
थी और हमलोग उनके हार्ट का औपरेशन करवाने उन्हें दिल्ली एस्कॉर्ट अस्पताल ले गए थे
तो महनार एकदम से मानो वीरान हो गया था। बबलू छोटा बाबू भी दिल्ली गए थे ... मगर
फिर बीच में महनार वापस आ गए थे ... एक तो किसी पुरुष सदस्य का घर पर रहना आवश्यक
था, दूसरे बहुत अधिक दिन तक दुकान बंद रखना भी उचित नहीं था।
वापस आते हैं तो देखते हैं कि मोती
खाना-वाना सब त्यागे हुए है ... सामने खाना पड़ा का पड़ा रह जाता है और मोती है कि
कभी आधा पेट खाकर, तो कभी नहीं खाकर यूं ही निस्तेज पड़ा रहता है, दुबला भी गया है काफी ... छोटा बाबू को काफी-काफी देर तक उसके पास बैठकर
उसको पुचकारना पड़ता था, बहलाना-फुसलाना पड़ता था ... तब जाकर
कुछ ठीक-ठाक खाना चालू किया था उसने फिर ... ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे भी
अंदेशा हो गया था कि दादाजी की तबीयत कुछ अधिक ही खराब है और वह भी अपने तरीके से
ही सही ... घर की विपरीत परिस्थितियों में अपनी सहभागिता दर्ज़ कराने की कोशिश कर
रहा था ...
. .......... .
आज ना तो दादाजी हैं ... ना मोती ही ... और
ना ही वह पुरानी दुकान जहाँ मोती ने दादाजी को काटा था।
दादाजी का दिल्ली का औपरेशन सक्सेसफुल रहा
था ... वापस महनार आए थे सही-सलामत ... कुछेक वर्ष ठीक भी रहे लेकिन फिर तबीयत
गड़बड़ाई और २१ मई, २००४ को उन्होंने पटना में एक नर्सिंग होम में अपनी आखिरी
साँसे लीं।
मोती पहले ही गुज़र चुका था ... जिस दिन वो
गुज़रा था ... उसके कुछ दिनोपरांत तक दादाजी काफी दुःखी रहे थे। जब मरा था तो उसी
डोम को फिर से बुलाया गया था ... दादाजी उसके साथ गंगा किनारे जाकर एक ढ़ंग की जगह
तलाश कर ... मोती के पार्थिव शरीर को गड्ढा कर वहाँ खुद से दफ़ना कर आए थे ...
वक़्त गुज़रा और उस पुरानी दुकान की जगह पर
रीकंस्ट्रकशन कर के आज एक नया मार्केट कम्प्लेक्स खड़ा है ... अब ना तो वह पुरानी
दुकान है, ना वह आँगन, ना चापाकल और ना ही बूढ़े दादाजी का वो
कमरा ... जिसमें एक वक़्त वो अपनी ज़िंदगी जिया करते थे ...
हाँ! एक चीज़ आज भी शेष है यहाँ पर ...
चापाकल जहाँ पर हुआ करता था ... वहाँ आज भी एक छोटा सा लोहे का टुकड़ा ज़मीन से बाहर
की ओर झांक रहा है ... मानो बेबस, लाचार ... अपनी जानी-पहचानी, पुरानी दुनिया को एक नई ... बिलकुल अजनबी दुनिया से दिन-प्रतिदिन लुटते
देख रहा हो ...
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