महनार में गंगा-घाट किनारे स्थित घर में
निर्मम, निर्मोही, निःशब्द अट्टहास गुंजायमान है। कलियुगी
दैत्यराज ने एक बार फिर से अपना मस्तक उठाया है। असोक अंकल की तबीयत खराब है। और
सिर्फ खराब ही नहीं है, तेज़ी से बिगड़ रही है। १५-२० दिनों
पहले वो फिर भी ठीक-ठाक चल फिर रहे थे, अब उसमें भी काफी कमी
आ गई है।[1]
मगर दैत्यराज ने अपना शीश नवाया ही कब था जो
उसे फिर से उठाने की आवश्यकता पड़े? मात्र इसलिए कि किसी का इससे सामना नहीं
हुआ है, यह तो नहीं कहा जा सकता कि दैत्यराज कभी था ही नहीं
या फिर कि वो शिथिल पड़ गया था? आखिरकार मेरी खुद की ज़िंदगी
में भी जब उसने पहली बार दस्तक दी थी, तो काफी दूर से दी थी –
इतनी दूर से कि पता भी नहीं चला था कि उसका असल रूप क्या होता है।
जब कल्लोल-दा अपनी १०-वीं कक्षा के बोर्ड
एग्ज़ाम्स मिस कर के हम लोगों की कक्षा में आए थे तो उनके सर पर बाल नहीं थे।[2] पता चला था कि उनकी माँ गुजर
गयी हैं – उन्हें कैंसर हुआ था। कितने दिनों तक उपचार हुआ, कितने
दिन वो बचीं – और किस अवस्था में – यह ज्ञात नहीं। पुछने की हिम्मत ही नहीं हुई थी।
ऊपर से यह पहली दफा था जब इस बीमारी का नाम इतने करीब से सुना था। इसके पहले कभी
सुना हो – ऐसा याद नहीं पड़ता।
छुट्टियों में घर गया था तो माँ को बताया था
कल्लोल-दा के बारे में – पापा से न तो तब अधिक बातें कर पाता था और ना अब ही कर
पाता हूँ। जैसा कि प्रायः हुआ करता है, घर का केंद्र-बिन्दु माँ ही थी। जो भी
कहना-सुनना होता था, अधिकांशतः माँ से ही होता था। अगर पापा
से कोई ऐसी बात बोलनी होती, जिसे बोलने में डर लग रहा हो, तो उसे भी माँ के कानों में डाल दो – उसे पापा तक सही तरीके से पहुंचाने
का जिम्मा फिर उसका। माँ ने सुना था तो कल्लोल-दा के बारे में पूछा था और अफसोस
जाहीर किया था – इससे अधिक इन वाकयों में कोई कर भी क्या सकता है?
दूसरी दफा तो जैसे दैत्यराज ने पूरे दम-खम, लाव-लश्कर
के साथ आक्रमण किया था। वह पता नहीं कैसा विचित्र और भयावह कालखंड था – २००५ के
मध्य से लेकर २००७ के एकदम सटीक मध्य – ३० जून - तक कालोनी में जैसे उसका एकछत्र
राज चला हो। ५ महिलाएं – लगभग सारी की सारी विभिन्न प्रोफेसरों की धर्म-पत्नियाँ -
एक के बाद एक शिकार हुई थीं इस दानव का।
उस दिन गर्मी थी काफी।[3] दोपहर को ऊपर वाली बाल्कोनी
में खड़ा था माँ के साथ। कालोनी में रहने का एक फायदा यह है कि यहाँ न तो इंसानी
भीड़-भाड़ है और न ही उससे उत्पन्न होने वाला बे-मतलब का शोर-शराबा। उस दिन भी गजब
की नीरवता पसरी थी चहूँ ओर। आवारा कुत्ते भी शांत थे - मानो इस गर्मी से
हैरान-परेशान हो किसी क्वार्टर के बरामदे में, किसी पेड़ के नीचे या फिर किसी
झुर्मुट्टे में दुबक से गए हों।
सामने शमी साहब के घर का तो कम से कम यही
हाल था।
शमी साहब - अँग्रेजी के प्रोफेसर … उर्दू
के भी समान रूप से धुरंधर … पटना और मुजफ्फरपुर में
विविध-भारती पर उनकी लिखी शेर-ओ-शायरियाँ प्रायः ही आया करती थीं। सिंक सा दुबला-पतला, लंबा शरीर। छरहरी काया, रिटायरमेंट के पड़ाव पर
लगभग-लगभग पहुँच चुकी ढलती उम्र। बाएँ कंधे से झूलता कपड़े का सिला हुआ झोला और
झोले में अँग्रेजी-उर्दू-हिन्दी साहित्य की पुस्तकें; पैरों में काले रंग की चमरे
की चप्पल (जो अकसर ही टूटी हुई हुआ करती थी)। पूरे का पूरा दिन छोटी गोल्ड-फ्लेक
के कशों और इधर-उधर की चाय की चुस्कियों के साथ ही कटा करता था उनका। निकाह – लोग
कहते हैं – उन्होंने एक के बाद एक ३-३ किए थे, मगर जाने क्यों एक भी बेगम उनके पास टिकी ही नहीं थी। एक लंबा अरसा
जैसे-तैसे अकेले, चाय-सिगरेट के साथ गुज़ार देने के बाद वो
अंततः अपने अनुज इकबाल साहब और उनके परिवार को अपने विशाल-वीरान क्वार्टर में ले
आए थे। यह बात पुरानी है – क्योंकि जब से (और इसको १५-१६ साल तो हो ही गए होंगे)
हम उनके सामने वाले क्वार्टर में रहने आए थे, हमने हर-हमेशा उस
घर को इकबाल आंटी के साथ ही देखा था। उस घर की रौनक,
शोर-शराबा, दिया-बत्ती हर कुछ उनके ही कारण तो था – वो और
उनके तीन बच्चे – गजल, आएशा और आदिल – के कारण।
‘महतो जी की मिसेज बोल रही थीं कि आदिल बहुत
रो रहा था ... जब इकबाल जी की मिसेज को दफ़नाया जा रहा था ... चिल्ला रहा था –
अम्मी को ज़मीन में क्यों डाल रहे हो ... अम्मी को ज़मीन में मत डालो।’ – माँ ने कहा था।
आदिल – किस उम्र का रहा होगा तब?
ब-मुश्किल ११-१२ साल का। हाँ – इससे अधिक का नहीं होगा – नन्ही सी तो जान था
बेचारा। इकबाल आंटी को भी कैंसर हुआ था। कालोनी का ४-था केस। मौका भी नहीं मिला था
कोई अधिक इलाज करवाने का – बस एक बार मुंबई, फिर वापस पटना –
और ४-५ महीनों के अंदर किस्सा खत्म।
कागजी-बादाम के प्रायः ठूँठ हो चुके पेड़ के
पार देखता हूँ – शमी साहब के बरामदे में ३ कुत्ते बड़े आराम से अपनी टाँगों को पसार
सो रहे हैं – और वो गायें जो कल-परसों तक पास के मैदानों में चरा करती थीं आज उनके
कैंपस में घुस आई हैं – बेतरतीबी से कमर तक उग आए घास और जंगली पौधों के कारण मानो
उनकी तो जैसे चाँदी हो गयी हो ... सहसा लगता है कि इन पशुओं की उपस्थिति के बावजूद
जैसे मानो इस चिलचिलाती दोपहर में कालोनी भर में पसरा सन्नाटा सिकुड़ कर शमी साहब
के क्वार्टर में गहरे, अंदर तक, सदियों से जमी सर्द बर्फ की
मानींद पैठ गया हो ...
. .......... .
१४ फरवरी, २०१५
मुझे दिल्ली आए आज दूसरा दिन है। निशु की
शादी है। सुबह १०-साढ़े-१० के आस-पास पापा बुलाते हैं, कहते
हैं – ‘चलो न जरा, मेट्रो घूमा दो। दिल्ली
मेट्रो नहीं देखे हैं अब तक।’
लगभग आधे घंटे में तैयार होकर हम दोनों
रिक्शा से पीतमपुरा मेट्रो स्टेशन पहुँचते हैं। रास्ते में बातचीत के क्रम में पता
चलता है कि हमारा रिक्शावाला भी मुजफ्फरपुर का ही है – ज़ीरो-माइल का। यह उसकी
बोहनी है – अर्थात हम लोग उसकी पहली सवारी हैं। ‘इतनी देर से क्यों?’ - पुछने पर बोलता है कि आम आदमी पार्टी के दफ्तर गया था सुबह-सुबह, वहाँ कुछ मीटिंग थी शायद। कहता है – ‘साहब, ये भाजपा और कांग्रेस में क्या रखा है। सब तो लूटते ही हैं। एक बार इनकी
भी सुन कर देख लेते हैं।’
मुझे अकस्माक याद हो पड़ता है कि जब माँ को
लेकर हम मुंबई गए थे, तो वहाँ जुहू बीच पर हमलोगों की इंस्टैंट तस्वीर उतारने वाला
लड़का भी मुजफ्फरपुर का ही था।[4] मगर मैं चुप ही रहता हूँ –
पापा को ये नहीं बोलता। गड़े मुर्दे उखारने से अगर कुछ हासिल नहीं होना, तो उन्हें न छेड़ना ही ठीक है।
मेट्रो स्टेशन के अंदर मैं पापा को सारा
सिस्टम समझाता हूँ। कहाँ पर मेट्रो का रूट-मैप देखना है, कहाँ से टिकट लेना है, कैसे यह पता करना है कि किस प्लैटफौर्म पर
हमारी गाड़ी आएगी, इत्यादि। पापा को चलित-सीढ़ी पर चलने का
अभ्यास नहीं है। वो लड़खड़ाते हैं तो मैं उनका हाथ थाम लेता हूँ। कहते हैं कि
मुज़फ्फ़रपुर स्टेशन पर भी ये सीढ़ी कुछ महीनों पहले लगाई गयी थी पर कुछ वक़्त काम
करने के बाद खराब हो गयी और अब ऐसे ही डिस-यूज में पड़ी हुई है।
हमारी गाड़ी आ गयी है – कश्मीरी गेट के लिए।
मैंने सोचा है कि पापा को कश्मीरी गेट – जो कि मेट्रो नेटवर्क का शायद सबसे बड़ा
इंटरचेंज स्टेशन है – से होते हुए राजीव चौक ले जाऊँगा। कुछ देर C.P. में
घूम-घाम कर वापस आ जाएँगे।
गाड़ी ४ डब्बे की है और हम आखिरी डब्बे के
आखिरी दरवाज़े से गाड़ी में प्रवेश करते हैं। भीड़ है इसीलिए हम दरवाज़े पर ही खड़े
हैं। दरवाज़े पर लगे शीशे के पार दिखती, तेज़ी से उलटी दिशा में भागती दिल्ली ऐसा
प्रतीत कराती है मानो इस शहर को सहसा पर लग गए हों जिन पर सवार होकर शिघ्रातिशीघ्र
यह न जाने कहाँ उड़ जाने को बेताब हो रही हो, मचल रही हो।
मैं पापा से पूछता हूँ – ‘आप कलकत्ते
की मेट्रो में तो चढ़े हैं न?’
‘हाँ। तुम भी तो थे। तुम्हारी माँ भी थी साथ
में। तुम्हें याद नहीं?’ – पापा बोलते हैं। फिर जरा क्षण, दो क्षण थम कर खुद ही बोलते हैं – ‘नहीं, तुमको कहाँ से याद होगा? तुम बहुत ही छोटे थे तब। मेट्रो शुरू हुए अधिक वक्त भी नहीं हुआ था तब कलकत्ता में।’
दो-तीन स्टेशन गुज़र चुके हैं। गाड़ी से कोई
उतरा तो है नहीं शायद, अलबत्ता और लोगों के प्रवेश करने से डब्बे में भीड़ बढ़ ज़रूर
गयी है। अब मैं और पापा दरवाजे के अलग-अलग छोड़ पर खड़े हैं। मैं जगह बनाते हुए पापा
तक सरकता हूँ।
पापा बोलते हैं – ‘असोकबा
पता है न?’
मैं पूछता हूँ – ‘कौन असोक? आपके दोस्त? महनार में?’
‘हाँ।’
‘क्या हुआ उनको?’
‘तबीयत खराब है।’ –
पापा बाहर दिल्ली को देखते हुए बोलते हैं। दिल्ली अभी भी अपनी मस्तमौला, चाल में इतराती हुई यूँ चली जा रही है मानो बाकी दुनिया को मुँह चिढ़ा रही हो।
मुझे मन करता है कि बोल पड़ूँ – ‘क्या है? कैंसर?’ … इधर पिछले पाँच-सात
सालों से अगर कोई भी इस लहजे में बोलता है कि किसी की तबीयत खराब है, तो एकमात्र ख़याल जो अनायास ही जेहन में उभर आता है वो है कैंसर। इन बीते
कुछ वर्षों में ऐसे जान-पहचान के लोग जिन्हें इस कलियुगी महादैत्य ने लील लिया हो, की संख्या में गजब का इजाफा हुआ है – पुन्नी जी,
उमा बुआ, कालोनी के ५ उदाहरण, O.P.
अंकल के पिता जी, महनार में ड्राइवर अंकल की
पत्नी, ठाकुर अंकल, सिंह साहब, गगन की माँ, पटोरी में कम-से-कम ३ लोग, खुद असोक अंकल के मँझले भाई ... एक दफ़ा, लगभग साल-डेढ़-साल
पहले, मैंने ऐसे नामों की फेहरिस्त बनाने की कोशिश की थी जो
या तो इस कारणवश खत्म हो चुके हैं या खत्म होने का क्षण-क्षण इंतज़ार कर रहे हैं - तो
मैं करीब-करीब ३५-३६ नामों तक पहुँच गया था।
मगर मैं शांत ही रहता हूँ। कुछ बोलता नहीं।
पापा के बोलने का इंतज़ार करना ही बेहतर जान पड़ता है।
पापा शीशे से बाहर देखते हुए ही बोलते हैं –
‘कैंसर हो गया उसको।’
‘मैं अभी तो मिला था उनसे महनार में महीने भर
पहले। दुकान पर आए थे वो शाम में। ठीक तो थे।’ - मैं बोलता
हूँ। फिर पूछता हूँ – ‘कितना दिन हुआ पता चले हुए?’
‘तबीयत खराब थी सप्ताह-१०-दिन से। पटना में
डॉक्टर ने कहा महावीर कैंसर संस्थान में जांच करवाने को। करवाया। ३ फरवरी को कन्फर्म
रिपोर्ट आया कि कैंसर है।’ - पापा ने कहा।
‘किसके साथ गए थे पटना?
उन्होंने तो शादी भी नहीं की है। कौन देखेगा उन्हें अब?’ –
मैं पूछता हूँ।
‘भाई है न जी उसका। महनार का एकमात्र C.B.S.E.
स्कूल उसी ने तो शुरू किया है।’
‘अच्छा। तब तो ठीक है। कम से कम उमा बुआ वाला
हाल तो नहीं होगा।’ - मैं बोलता हूँ।
उमा बुआ हमारे घर के सामने वाले घर में रहती
थीं। कलकत्ते में किसी स्कूल में टीचर थीं। कभी-कभी छुट्टियों में महनार आया करती
थीं। रिश्ता कुछ था नहीं उनसे। बस गाँव में पड़ोसी थीं तो पापा लोग उन्हें बुआ बोला
करते थे। पापा लोगों की देखादेखी घर के बच्चे भी उन्हें बुआ बोलने लगे और इस कदर
वो हम सब की बुआ हो गयीं – क्या पापा का जेनेरेशन, क्या हमारा। मेरे छोटे भाई बुन्नु
को बहुत मानती थीं वो।
अंत काल में काफी परेशानी हुई थी उन्हें।
देखभाल करने वाला कोई रिश्तेदार भी नहीं था। दादी दिन-दिन भर उनके पास बैठी रहती
थी। खाना भी उनका हमारे यहाँ से ही जाता था। In fact, जिस देर रात
उन्होनें अंतिम साँसे ली थी, बबलू छोटा बाबू और दादी उनके
पास ही बैठे हुए थे।[5]
. .......... .
गाड़ी कश्मीरी-गेट स्टेशन में प्रवेश कर
रही है। मैं पापा से बोलता हूँ कि यहाँ भीड़ होगी ... धक्का-मुक्की भी। सावधानी से
उतरें। गाड़ी और प्लैटफ़ार्म के बीच खाली जगह होती है – उसका ध्यान रखें।
गाड़ी से उतर कर नीचे जाने के बजाए पापा को
मैं साईड में ले जाता हूँ। स्टेशन से बाहर की ओर दायीं तरफ़ देखने से अन्तर-राज्यीय
बस-अड्डा नज़र आता है। दिखाने के उद्देश्य से कम और बातचीत की दिशा बदलने के मकसद
से अधिक, मैं पापा को बस-अड्डे की तरफ़ ईशारा कर के कहता हूँ कि यहाँ से आपको
पड़ोसी-राज्यों के लिए बसें मिल जाया करेंगीं। पापा बस अड्डे की तरफ़ देखकर बोलते
हैं कि यहाँ कुछेक दफा आना पड़ा था उन्हें। ८० के दशक के शुरुआती दौर में जब वो पंजाब
विश्वविद्यालय से M. Pharm. कर रहे थे
तो कभी-कभी पटना जाने के लिए ट्रेन दिल्ली से पकड़नी पड़ती थी ... ऐसी स्थिति में
चंडीगढ़ से जब दिल्ली बस से आते थे तो इसी बस-अड्डे पर उतरते थे। एक घूमती सी नज़र
सामने पसरी हुई दिल्ली पर डालकर कहते हैं – ‘उस समय यहाँ सिवा
बियाबान के कुछ भी नहीं हुआ करता था।’
दिल्ली मेट्रो इस शहर और इस ज़िंदगी से परेशान लोगों के लिए मुक्ति-स्थल बन गया है। दो-तीन वर्ष पूर्व टाइम्स औफ़ इण्डिया में पढ़ा था कि किसी ने शायद इसी जगह से नीचे कूदकर अपनी जान दे दी थी। मैं चुपचाप नीचे सड़क की तरफ़ देखता हूँ ... ऊँचाई मुझे इतनी तो कतई जान नहीं पड़ती कि कोई कूदे तो उसकी जान चली जाये ... हाँ! हाथ-पैर टूटने की गारंटी १२० टका अवश्य है।
खैर ...
C.P. जाने के लिए यहाँ से येलो लाइन लेनी
होगी, जो की भूमिगत है। पापा को लेकर नीचे की ओर अग्रसर होता
हूँ। ४-५ मंज़िल नीचे जाना है। चलते-चलते पापा को डायरेक्शन-बोर्ड्स और लाल-पीले
रंगों से बने पदचिह्न दिखाता चलता हूँ। अगर देखा जाये तो दिल्ली-मेट्रो वास्तव में
काफी यूजर-फ्रेंडली मोड-औफ़-ट्रांसपोर्ट है। कोई अगर नया भी है यहाँ, अगर वह स्टेशनों में बने दिशा-निर्देशों का सही तरीके से पालन करे तो मुझे
नहीं लगता कि उसे किसी सहयात्री या मेट्रो-कर्मचारी से मदद की बहुत अधिक आवश्यकता
पड़ेगी।
येलो लाइन पहुँचकर भीड़ इतनी है वहाँ कि
हमलोग पहली गाड़ी छोड़कर दूसरी गाड़ी ही ले पाते हैं। भीड़ के कारण रास्ते में बात
नहीं के बराबर ही हो पाती है। जब नई-दिल्ली स्टेशन ‘क्रौस’
करता है तो मुझे सहसा खयाल आता है कि C.P. में निकलकर
इधर-उधर भटकने से अच्छा शायद यह होगा कि पापा को एअरपोर्ट लाईन की भी सवारी करवा
दी जाये। २०११ में एकबार यूँ ही एअरपोर्ट लाइन की यात्रा की थी। १००-१२० रुपये का
टिकट था शायद ... मगर यह ट्रेन इतनी शानदार है और इस द्रुत-गती से भागती है कि
मात्र २०-२५ मिनट के सफ़र के लिए इतनी अधिक रकम देना मुझे नहीं अखरा था।
राजीव चौक में उतरकर मैं पापा को एअरपोर्ट
लाइन वाला आइडिया देता हूँ और हम वापस नई दिल्ली स्टेशन आ जाते हैं।
पापा अभी और भी बात करना चाहते हैं मगर मैं
सोचता हूँ कि पहले एअरपोर्ट मेट्रो को ही निपटा लिया जाये। वहाँ पहुँच कर पता चलता
है कि अन्य स्टेशनों से उलट यहाँ पहले सेक्यूरिटी चेकिंग होती है, फिर
टोकन लेना होता है। ऊपर से मेरी जानकारी के विपरीत यात्रीगण दिल्ली मेट्रो स्टेशन
में जो चढ़े तो सीधा एअरपोर्ट स्टेशन पर ही उतर सकते हैं। बीच के स्टेशन्स पर नहीं
उतरा जा सकता।
और सबसे ज़रूरी बात! यहाँ से एयरपोर्ट तक का
एक यात्री का भाड़ा है ३०० रुपए!! मैं पापा को फिर भी समझाता हूँ – ‘एअरपोर्ट मेट्रो देखने लायक है। अपने किस्म की शायद एकमात्र रेलगाड़ी हो
पूरे भारत में।’ मुझे आज भी भली-भांति याद है इस गाड़ी की खूबसूरती – मोटे-मोटे
गद्दे लगे क्या आरामदेह कुर्सियाँ हैं!! और फ़र्श? मोटे
बेशकीमती कालीन से इंच-इंच बिछा हुआ!! शायद ‘पैलेस ऑन व्हील्स’ को छोड़ दिया जाए तो मेरी समझ में
और कोई रेलगाड़ी नहीं पूरे भारतवर्ष में जो इस कदर और इस नाज़-ओ-नख़रों के साथ
सजाई-सँवारी गयी हो मानो कमसीन दुल्हन हो कोई ... हर रोज़ नव-ब्याहता, अपने चिर-यौवन में सर से पाँव तक सराबोर, हर रोज़ अपने हुस्न के नित-नए कद्रदानों का बीच-बाज़ार उसी शाश्वत, कालजयी तरीके से इंतज़ार करती हुई ... मुझे इस नव-ब्याहता के दीदार के लिए ६००
रुपए कोई बहुत अधिक नहीं लगे ...
मगर दो लोगों का मतलब था १२०० रुपए ... सहसा
दुल्हन कुछ अधिक ही महंगी हो गयी थी ...
पापा बोले, चलो न बाहर चलते हैं, थोड़ी देर घूम-फिर कर वापस निकल चलेंगे।
और इस कदर हम दिल्ली मेट्रो के अधिकार
क्षेत्र से निकल कर भारतीय रेल की छत्र-छाया में आ जाते हैं। कहाँ मेट्रो की वो
वातानुकूलित, ठंडी हवाएँ, और कहाँ ये भारतीय रेल का
रूखा, ऑल्मोस्ट रेपेल करता हुआ वही पुराना, चिर-परिचित चेहरा ...
बाहर गर्मी हो चली है। दिन के करीब साढ़े-१२-१ के करीब हो रहे हैं और फरवरी का महीना होने के बावजूद धूप में इतनी
गर्मी तो है ही कि बहुत लंबे समय तक ना तो इसमें खड़ा हुआ जा सकता है, ना ही दिल्ली की सड़कों पर विचरण। मगर मुझे अब ऐसा लगने लगा है कि पापा का
बाहर निकलने का कारण सिर्फ दिल्ली मेट्रो देखना नहीं था,
अपितु असोक अंकल के बारे में बात करना भी था ...
. .......... .
असोक अंकल से मेरी पहचान कोई अधिक पुरानी नहीं
है। पापा से और छोटा-बाबू लोगों से सुना करता था बराबर इनके बारे में, लेकिन
फिर भी – बराबर महनार आते-जाते रहने के बावजूद – उनसे कभी मुलाक़ात भी हुई हो, याद नहीं आता। बातचीत तो काफी दूर की बात है।
२०१३ की गर्मियों में घर पर था तब पापा को
फोन आया था उनका।[6] हाथ
टूट गया था कैसे तो गिर कर। किसी ने उन्हें मुजफ्फरपुर में किसी डॉक्टर के बारे
में बताया था और वो उससे एक बार मिलना चाहते थे। पापा को फोन कर नम्बर लगाने को
कहा और शाम तक घर आ पहुंचे। टूटे हाथ में प्लास्टर था, जिसे वो गले से लटकाए हुए थे। यही शायद मेरी पहली मुलाक़ात थी उनसे।
साधारण वेषभूषा, पतला
शरीर, भारतीय माप-दण्ड के हिसाब से मध्य लंबाई – ना बहुत
लंबे, और ना ही छोटे। लंबा चेहरा – जिसपर ठीक-ठाक मात्र में
उम्र के साथ उगने वाली झुर्रियां कुछ इस अधिकार के साथ उग आयीं थीं मानो वह चेहरा
अब उनका अधिक, और असोक अंकल का कम रह गया हो। नाक पर चश्मा और
सही-सलामत हाथ में एक पतला सा ब्रीफकेस।
बाद में पापा से पता चला था ३ भाई और ३
बहनों में ये सबसे बड़े थे। स्कूल में पापा के क्लास-साथी थे, गणित के
काफी अच्छे विद्यार्थी। शादी की नहीं थी इन्होंने भी। मगर ऐसा नहीं था कि शादी
करना नहीं चाहते थे। इनके पिताजी दरअसल थे पीने-खाने वाले। स्कूल की फीस भी
लेट-लतीफ ही दिया करते थे इनको। अकसर ही पापा को जाना पड़ता था इनके पिताजी से फीस
के बारे में बात करने के लिए। जब शादी करने को बोला गया तो असोक अंकल का बस एक
कहना था – ‘बाबूजी पहले एक दुकान करवा दें हमको। पत्नी आएगी
तो उसको खिलाएँगे क्या?’ पिताजी का कहना था – ‘पहले शादी तो करे, दुकान तो हम खुलवा ही देंगे।’ मगर फीस के लिए आगे-पीछे करने का अनुभव शायद कुछ ऐसा कड़वा था असोक अंकल का
कि उन्हें अपने पिताजी का दिया आश्वासन कोरी गप्प ही लगी। दोनों के दोनों
अपनी-अपनी बातों पर अड़े रहे और असोक अंकल की शादी नहीं हो पायी।
पापा से बड़ी आत्मीयता रही है असोक अंकल की
हमेशा। कभी-कभी पापा के फ्रेंड-सर्कल के बारे में सोचता हूँ तो अचंभा होता है – एक
तरफ़ चौरसिया जी हैं – पापा के चंडीगढ़ के दिनों के साथी – जो आज अमेरिका में
प्रोफेसर हैं, और दूसरी तरफ़ असोक अंकल सरीखे गाँव के दोस्त, जो गाँव में ही रह गए ... २-३ तो ऐसे भी हैं जो आज भी महनार में सड़क
किनारे चाय-सत्तू-सरबत-लस्सी बेचा करते हैं।
अगर आज की ‘नोट-छाप’ परिभाषा में देखें तो असोक अंकल ने अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं किया –
ना कहीं नौकरी की, ना रोजगार, और ना
पैसे ही बनाए। एकदम फक्कड़ों वाली, मस्त-मौला ज़िंदगी जी। जरूरतें
अपनी सीमित रखीं, परिवार संयुक्त था ... गाँव का परिवेश –
जहाँ पास-पड़ोस-समाज का कहा आज भी मायने रखता है – परिवार के साथ रहते-रहते ही
ज़िंदगी कट रही थी उनकी। ... मगर साहित्य के प्रेमी थे और पूरा दम-खम लगाकर छोटे
स्तर पर ही सही, महनार से उन्होंने मासिक साहित्यिक पत्रिका
शुरू की थी – ‘गूँजता महनार।’ साल में
२-३ बार महनार-पटोरी में जी-जान लगाकर हिन्दी-कवि-सम्मेलन भी आयोजित करवाते थे ...
. .......... .
हम मेट्रो से निकल कर बाहर नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन
के सामने पार्किंग के पास आ गए हैं। एक पेड़ के नीचे खड़े हैं। चारों ओर भयानक
शोर-शराबा, इंसानी हुज़ूम ... एक जत्था स्टेशन से बाहर निकल रहा है ... कोई गाड़ी आई
है अभी-अभी लगता है ... आटो-वालों का सवारियों को अपनी गाड़ी में बैठाने हेतु किया
जाने वाला हल्ला ... एक खाकी वर्दी वाला है जो सामने खड़े आटो पर पूरे अधिकार के
साथ जोड़ से एक डंडा जमाता है, मुँह में भरी पान की पीक
पच्च-से बीच सड़क पर थूकता है, फिर आटोवाले को कड़क आवाज़ में
माँ-बहन की गालियों के साथ आगे सड़कने की धमकी देता है ... मानो उसे सरकारी वेतन दिल्ली
के कुप्रसिद्ध लहजे में हिन्दी का बलात्कार करने और डंडे बरसाने के लिए ही मिलते
हों ...
‘असोक से तो मिले हो ना तुम? कितनी सीम्पल ज़िंदगी जीता था वो। ना कुछ खाना, ना
पीना ... आधी ज़िंदगी तो फलाहार करके गुज़ार दिया। केला खाता था तो छिलका फेंकता नहीं
था, पन्नी में रख लेता था ... और तब तक रखे रहता था, जब तक कोई गाय नहीं दिख जाए। ऐसे आदमी को यह हो जाएगा, विश्वास ही नहीं होता।’ - पापा बोलते हैं।
पता नहीं क्यों ... सही है या गलत ... या की
एक अंधविश्वास मात्र है ... मगर ऊपर बैठे हुए पर आज भी इतना विश्वास तो है ही कि
जो एक ईमानदारी-पूर्ण और सदाचार की ज़िंदगी जियेगा, उसे कुछ नहीं होगा। नहीं
खाने-पीने का, आधी उम्र फलाहार करने का और गोमाता के लिए
पूर्ण श्रद्धा के साथ केले के छिलके जमा करने, नहीं करने का कैंसर
के साथ के क्या संबंध हो सकता है मुझे समझ में नहीं आता ... खासकर तब जब कालोनी की
उन ५ महिलाओं को एक तरफ़ देखता हूँ – जिनमें माँ भी शामिल है – जिन्होंने ठीक-ठाक
नियमपूर्वक ज़िंदगी जी और फिर भी जिन्हें यह बीमारी हो गयी,
और दूसरी तरफ़ शमी साहब को या शर्मा अंकल को देखता हूँ, जो
पूरी उम्र बिना किसी गंभीर स्वास्थ्य-समस्या के चिमनी ही बने रहे और आज भी बिना
रुके, उसी उत्साह और वेग के साथ धुआँ उगल रहे हैं ... तो
ज़िंदगी में क्या करना उचित है, क्या अनुचित इसपर सवाल अनायास
ही हो उठता है।
‘कहाँ पर निकला है उनको?’ – मैं पूछता हूँ।
‘लीवर से शुरू हुआ लेकिन अब तो लास्ट-स्टेज
है। लास्ट-स्टेज में ही धराया। प्रेस्क्रिप्शन तो मैंने देखा है ना – उसमें लिखा
है - Metastatic Adenocarcinoma – अंतिम ही है समझो।’ - पापा बोलते हैं।
एक बहुत ही साधारण सा प्रश्न है मन में जो
मैं पापा से पूछता हूँ – ‘क्या होता है इसमें?
दर्द होता है क्या बहुत? असोक अंकल के पास तो पैसे भी नहीं
होंगे ... उन्होंने कभी पैसे कमाए ही नही ... तो इलाज कैसे करवायेंगे? गरीब लोग – जिनके पास पैसा नहीं होता – वो कैसे इलाज करवाते हैं?’
‘दर्द तो होता होगा इसमें। गरीब लोग ऐसे ही
मर जाते हैं बिना इलाज के ... इलाज कितने लोगों का होता है?
मैं गया था ना मिलने के लिए असोक से महनार तो उसका छोटा भाई पूछ रहा था इलाज के
विषय में ... मैंने तो उसको कहा कि देखो भई, आखिरी स्टेज है, कीमो करवाओ या नहीं, इसको जाना ही है। और कीमो
से भी कितना फायदा होता है, कितना नहीं ये सब भी तर्क-वितर्क
का विषय ही है। कीमो भी तो आखिरकार जहर ही है एक। बहुत अधिक पैसा लुटाना भी इसके
इलाज में ... मैं तो इसकी सलाह नहीं ही दूँगा ... बाकी तुम समझो ... या तो खुद के
दिमाग से काम लो या फिर समाज की सुनो।’ - पापा बोलते हैं।
२००७ में मिली एक बूढ़ी और उसकी बेटी अचानक याद
हो आती है। माँ को कीमो दिलवाने के लिए महावीर कैंसर संस्थान जाते थे उस समय।
तीसरा या चौथा कीमो रहा होगा शायद। माँ के बगल वाले बिस्तर पर वो बूढ़ी अपनी बेटी
का कीमो करवा रही थी। हॉल के बाहर गैलरी में हमलोगों से बात हुई तो रोने लगी फफक-फफक
कर। गरीब थी। इलाज के लिए पैसे थे नहीं। ज़मीन थी थोड़ी सी पुश्तैनी गाँव में। बोली
कि लोगबाग, रिश्तेदार, इत्यादि उसको सलाह दे रहे हैं ज़मीन
बेचकर बेटी का इलाज करवाने के लिए। मुझे याद है पापा ने उनको बिना हिचकिचाये सलाह
दी थी – ‘देखिये अम्मा। आपके रिश्तेदार नहीं हैं हम। आपसे कोई
स्वार्थ सधने वाला भी नहीं है। झूठ नहीं बोलेंगे आपसे। आपकी बेटी को जो बीमारी है
उसमें वो बचेगी नहीं। आज नहीं तो कल उसका जाना तय है। ऐसे में आप ज़मीन भी बेच
दीजिये मोह-माया में फंसकर, तो आपके हाथ से बेटी तो जाएगी ही
जाएगी, ज़मीन भी चली जाएगी। इसलिए मेरी सलाह आपको बस इतनी है
... कौन क्या बोलता है सुनना बंद कर दीजिये ... अगर इलाज के लिए पैसे नहीं हैं तो
बेटी को घर पर रखिए, लेकिन ज़मीन किसी भी स्थिति में मत बेचिए।’
पापा की सलाह पहली बार में तो अटपटी सी लगती
है ... मगर जरा नजदीक से सोचा जाये तो लगता है कि सही ही बोल रहे हैं। पापा तो
यहाँ तक कहते हैं कि उन्हें आज भी लगता है कि माँ को अगर कीमो नहीं करवाए होते तो
उसे वो ६-७ महीने, साल-भर और जिया लिए होते। मगर इंसान ऐसी परिस्थितियों में यह
सोचने लगता है कि समाज क्या कहेगा कि इलाज भी नहीं करवाया। ‘अरे
... इसका जब इलाज है ही नहीं, जब सारे मरीज एक्सपेरिमेंटल
गिनी-पिग मात्र हैं, तो इलाज करना-नहीं करना क्या होता है? वो भी तब जब डाक्टर क्लियर-कट कह दिया हो कि आखिरी-स्टेज है?’
पापा फार्मेसी के प्रोफेसर हैं और
मेडिकल-साइंस का अच्छा नॉलेज है उनका। ऊपर से इतना तो तय है कि इस बीमारी में आधे
लोग तो शायद समाज क्या कहेगा यह सोचकर इलाज करवाते हैं ... और बाकी आधे इस भ्रम
में कि शायद कहीं, कोई करिश्मा हो जाये ... मैं उन लोगों के बारे में बात कर रहा
हूँ, जिन्हें डाक्टर ने आखिरी स्टेज का मरीज करार दिया है।
‘माँ को दर्द होता था क्या?’ – मैं पूछता हूँ।
‘दर्द तो ज़रूर होता होगा उसको। सहती भी तो थी
बहुत, बोलती भी कम थी वो।’ - पापा
बोलते हैं। - ‘जब दर्द होता है तो दर्द की गोलियां दी जाती
हैं। धीरे-धीरे करके जब सारी दवाइयाँ फेल होने लगती हैं तो अंत में दर्द पर काबू
करने को Morphine की गोलियां दी जाती हैं ... Morphine
भी खरीदे थे उस समय, मगर उसकी ज़रूरत ही नहीं
पड़ी। वो तो बहुत कम कष्ट में चली गयी, नहीं तो इस बीमारी में
तो बहुत अधिक गिंजन होता है।’
मुझे याद पड़ता है जब माँ की तबीयत खराब थी
तो पोलीटेक्निक के पास जो साई-मंदिर है ... वहाँ से गुजरते हुए हाथ जोड़कर बस यह
प्रार्थना किया करता था कि प्रभु जो आपको ठीक लगे वो कीजिये। मुझे समझ में ही नहीं
आता था कि माँ के लिए कुछ दिनों की ज़िंदगी और माँगूँ या फिर एक आसान, कष्ट-रहित मौत। जब इंसान को समझ में आना बंद हो जाये कि क्या सही है, क्या गलत, तो शायद बेहतर यही होता है कि वह अपने से
बड़ी शक्तियों के आगे नतमस्तक हो जाये ... आत्मसमर्पण कर दे ...
मैं देखता हूँ कि पापा की आँखों में आंसू
आने लगे हैं। इससे पहले की वो रो पड़ें मैं बोलता हूँ कि चलिये अब ... काफी देर से
बाहर हैं हमलोग ... वहाँ बिध-त्योहार शुरू हो गया होगा ... और पापा को खींचकर मेट्रो
की सीढ़ियों की तरफ ले चलता हूँ ...
मार्च ७-८ से दो सप्ताह की छुट्टियाँ हो रही
हैं कॉलेज में ... पापा से बोलता कुछ नहीं हूँ ... पर मन ही मन में सोचता हूँ कि
इन छुट्टियों में जब महनार आऊँगा तो असोक अंकल से भी मिलूंगा ...
. .......... .
२२ फरवरी, २०१५
मैं बैंगलोर में हूँ ... रात ९-साढ़े-९ बजे पापा
को फोन करता हूँ तो बोलते हैं कि वो महनार में हैं ... असोक अंकल के यहाँ थे कुछ
देर पहले ... तबीयत और बिगड़ गयी है ... पेशाब-पैख़ाना अब भी खुद से ही जा रहे हैं
... मगर अब लड़खड़ाने लगे हैं ... दीवार पकड़कर चलते हैं ... अगर कोई उन्हें सहारा
देने की कोशिश करता है तो झल्लाते हैं ...
. .......... .
८ मार्च, २०१५
पटना पहुंचा हूँ सुबह १० बजे के आस पास। घर
में घुसता हूँ ... तो देखता हूँ अनिल छोटा-बाबू और छोटी माँ हैं सामने वाले कमरे
में बैठे हुए ... थोड़ी देर बैठता हूँ, फिर छोटा-बाबू बोलते हैं – ‘पता है कि नहीं ... वे नहीं रहे?’
‘कौन?’ मैं पूछता हूँ।
फिर लगे हाथ खुद से बोलता हूँ – ‘असोक अंकल?’
‘हाँ।’
‘कब गुजरे? अभी कुछ
दिनों पहले ही तो पापा से बात हुई थी ... पापा महनार में ही तो थे उस दिन ... उस
दिन तो ज़िंदा थे वो ...’
‘हाँ ... अभी २ तारीख को मरे ... भैया तो इधर
बराबर महनार आते रहे हैं उनसे मिलने के लिए ... २ तारीख को भी जैसे ही उन्हें पता
चला, वो महनार आ गए थे ... ३ को घाट पर भी गए थे।’ फिर जरा रुककर मुझसे पूछते हैं – ‘भैया को पता है
कि तुम पटना आए हो?’
‘हाँ ... बताया था उनको कि आने वाला हूँ ...’
‘बताओ ... असोकजी ऐसे आदमी को कैंसर हो जाये
... विश्वास ही नहीं होता। जानते हो ... मालन्यूट्रिशन का शिकार हो गए वो ...
शादी-वादी किए थे नहीं ... इधर-उधर कुछ भी खाकर, नहीं-खाकर
ज़िंदगी काट दिये पूरी ... इसी का असर हुआ लगता है ... खान-पान आदमी को ठीक रखना
चाहिए।’
मुझे कुछ समझ में नहीं आता कि क्या बोलूँ।
उनको जाना तो था ही ... कलियुगी दैत्यराज स्वयं जो उनके पीछे पड़ गया था ... मगर
इतनी जल्दी चले जाएँगे ... मैंने यह एकस्पेक्ट नहीं किया था ... मैंने सही में
सोचा हुआ था कि इस बार महनार में उनके घर जाऊंगा ... उनसे मिलूंगा ... कुछ देर ही
सही ... बातें करूंगा उनसे।
मैं चुपचाप सहमति में सर हिलाता हूँ और अपने
बैग के साईड-पॉकेट से ब्रश-जीभिया निकालने लगता हूँ ...
P.S. – जैसे असोक अंकल के प्रेस्क्रिप्शन में
Metastatic Adenocarcinoma लिखा हुआ था, वैसे ही पापा बताते हैं कि माँ के प्रेस्क्रिप्शन में Non-Small
Carcinoma लिखा हुआ था।
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