क्या आपने कभी कबूतर के पंजों से जख्म खाया है? क्या अजीब सा सवाल है? - आप शायद पूछ रहे हों. जख्म? और वो भी कबूतर के पंजों से? ये कैसे हो सकता है भाई? कहाँ एक तरफ दुनिया का शायद सर्वाधिक शांतिप्रिय प्राणी और कहाँ दूसरी तरफ आदमी, जिसने ना सिर्फ अपनी ज़िन्दगी में ही अफरा-तफरी मचा रक्खी है, बल्कि मानो पूरी सृष्टि का ही संतुलन बिगाड़ने का जैसा बीड़ा उठा रक्खा है.
मैंने खाया है कबूतर के पंजों से जख्म. और मेरी बाईं हथेली पर लगा घाव अभी भी ताज़ा है. गलती मेरी ही थी. कबूतर तो शायद फिर भी बच के निकल मात्र जाना चाहता था.
मेरे घर के सामने वाली सड़क के दूसरी तरफ एक छोटा सा मैदान है. मैदान क्या है, यों मान लीजिये कि जैसे एक छोटी सी ज़मीन है; खाली और समतल. धुल और मिट्टी से भरी हुई. मायानगरी मुंबई में सर छुपाने को एक छत मिल जाए वही काफी है, खाली और हरे-भरे मैदान के बारे में तो शायद कोई दूर दूर तक नहीं सोचता.
कुछ दिनों पहले मैंने सुकेतु मेहता की किताब मैक्सिमम सिटी पढ़ी थी. मुंबई की इस बायोग्राफी टाइप की किताब में मुंबई का परिचय काफी डरा देने वाले तथ्यों के साथ लेखक ने दिया है. उनके मुताबिक मुंबई में पुरे ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप से अधिक लोग रहते हैं. मैंने इस बात की कभी पुष्टि नहीं की. कोई ज़रुरत ही नहीं समझी. वर्ग आठ की भूगोल की पुस्तक में लिखा था कि भारत हर वर्ष खुद में एक ऑस्ट्रेलिया जोड़ता है. मुंबई वाला तथ्य गलत हो इसकी संभावना काफी कम है.
लोगों से इस प्रकार लबालब भरे इस शहर में यदि एक-दूसरे के लिए वक़्त ना हो, तो इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए. यहाँ आदमी एक बार सवेरे जो भागना चालू होता है, तो सीधा देर रात को ही जाकर चैन की दो सांस ले पाता है. अगले दिन से फिर वही कल वाली ज़िन्दगी चालू. कई लोग तो यहाँ अपनी एक चौथाई ज़िन्दगी लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए ही काट देते हैं.
खैर! ये तो मुंबई की समस्या है. मैं तो अपने घर के सामने वाले मैदान की बात कर रहा था. मैदान छोटा सा है - धुल-मिट्टी और छोटे कंकरों से भरा हुआ. हरियाली नहीं के बराबर है. कुछ इक्का-दुक्का पेड़ अवश्य खड़े हैं इधर-उधर गुमसुम से - मानो डरे हुए हों की ना जाने कब किसी बिल्डर की नज़र इस मैदान पर भी पर जाए और कब ना जाने उनपर भी ठीक उसी तरह आरियाँ चला दी जाएँ जैसे कुछ महिनों पहले बगल वाली ज़मीन पर खड़े पेड़ों पर चलायी गयी थी.
अगल बगल अच्छी खासी अट्टालिकाओं से घिरा यह मैदान लगभग दस-बारह टीन के झोपड़ों से भरा पड़ा है. गरीबों की एक अत्यंत ही छोटी सी बस्ती है - डेली वेजर्स हैं शायद. हर दिन सवेरे काम की तलाश में निकलते हैं और देर रात वापस लौटते है. ना पानी की सप्लाई है उनके घरों में और ना ही बिजली का कोई पुख्ता इंतजाम. हाँ, एक रोड रोलर अवश्य काफी दिनों से खड़ा है उनके झोपड़ों के सामने, मैदान में एक किनारे की ओर.
कबूतर वाली घटना इसी मैदान की है.
मुंबई की एक खासियत है. लोगों के पास एक दुसरे के लिए वक़्त हो ना हो, मगर कुछ लोग हैं यहाँ जो हर सुबह और शाम को इन नादान पंछियों के लिए वक़्त अवश्य निकाल लेते हैं. ऐसा नहीं है कि ये लोग किसी एक संप्रदाय या फिर किसी एक प्रोफेशन से जुड़े हों. जहाँ एक तरफ वह एक छोटा मोटा दूकानदार है, झुग्गी में रहने वाला इंसान है, वहीँ दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी पोशाक और चाल-चलन से किसी अंतर-रास्ट्रीय कम्पनी में काम करने वाले वेल पेड प्रोफेशनल जान पड़ते हैं. हर रोज़ नियमित तौर से ये लोग बोरियां भर-भर अनाज इन पंछियों को डालते हैं. निरंतर कम होती प्रकृति से जुड़े रहने का मुंबई का यह शायद अपना तरीका है.
कबूतरों को दाना डालने के लिए दादर और खार रेलवे स्टेशनों के बाहर तो जैसे एक अलग इन्फ्रास्ट्रक्चर ही तैयार कर दिया गया है. एक छोटी सी जमीन को पक्की दीवारों से घेरकर मानो उसे इन पंछियों के ही नाम कर दिया गया हो. जिस मैदान की मैं बात कर रहा हूँ, वहां ऐसा कुछ भी नहीं है. कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर, कोई ज़मीन कबूतरों के नाम नहीं की गयी हैं.
शामें तो अब अधिकतर ऑफिस के वातानूकूलित वातावरण में ही कटती हैं, मगर सुबह सवेरे मैंने अक्सर दो-तीन अत्यंत सामान्य से लोगों को इन पंछियों को उनका रोज का राशन देते हुए देखा है. एक बुजुर्ग से सज्जन भी आते हैं बराबर जींस और टी-शर्ट में. वो तो ना सिर्फ कबूतरों के लिए दाना लाते हैं, बल्कि सड़क के आवारा कुत्तों के लिए बिस्किट भी.
मैं कुछ लेकर तो नहीं जाता, मगर जब भी सवेरे नींद खुलती है, एक बार इस जगह जरुर चला जाता हूँ. काफी अच्छा दृश्य होता है यहाँ पर. करीब सौ दो सौ कबूतर, चार पांच लोग, दर्जन भर कौव्वे और दो-तीन आवारा कुत्ते - सारे मानो एक सामंजस्य में एक-दूसरे के साथ वहां इकठ्ठा होते हैं. दाना डालने वाले लोग जहाँ दाना डाल रहे होते हैं, कबूतर उन्हें काफी समीप से घेरे रहते हैं - इतने समीप से की अगर फुर्ती के साथ एक झपट्टा मारा जाए तो एक ना एक पंछी तो हाथ में अवश्य आ जाए. कुत्ते भी आराम से कबूतरों के इस झुण्ड में घुमते हैं, मगर कभी उन्हें भी उनपर हमला करते हुए नहीं देखा.
सुबह-सुबह वहां जाना अच्छा लगता है. पंछियों को इतने पास से देखना और उनके बीचों-बीच चहलकदमी करना कहीं और संभव है या नहीं कहना मुश्किल है. आश्चर्य की बात है कि इतनी अधिक संख्या में होते हुए भी और भोजन की लिमिटेड सप्लाई के बावजूद इन पंछियों में एक अजीब सी ख़ामोशी व्याप्त रहती है - मानो वो जो भी मिल जा रहा है उसी में संतुष्ट हों. आपस में ना तो कोई कम्पीटीशन की भावना और ना कहीं जाने की कोई जल्दी.
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