गत २७ मार्च को विश्व भर में अर्थ-आवर मनाया गया. WWF की अगुआई में सम्पन्न हुए इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था तेज़ी से बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से परेशान मानवजाति के प्रति संवेदना व्यक्त करना और इस विकट परिस्थिति की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करना. कार्यक्रम काफी हद तक सफल रहा. अगर WWF के वेब-पेज पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि विश्व भर के १२६ देशों ने अर्थ-आवर २०१० में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. भारतीय समयानुसार शाम के साढ़े आठ बजे से लेकर साढ़े नौ बजे तक विश्व भर की कई सुप्रसिद्ध इमारतों ने अपनी-अपनी बत्तियां गुल कर दीं. २००७ में ऑस्ट्रेलिया से प्रारंभ होकर यह ऐसा चौथा लगातार वर्ष था, जब मानवजाति ने अप्राकृतिक कारणों के नतीजतन तेजी से बढ़ते तापमान से परेशान मानवता के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की.
अजीब है; नहीं? मानव निर्मित इस विपदा से परेशान है कौन? मानव. और सहानुभूति प्रदर्शित कर रहा है कौन? स्वयं मानव.
अर्थ-आवर कितना सफल था और कितना नहीं यह एक बहस का मुद्दा है. अगर कुछ अन्य आकड़ों पर ध्यान दें तो ज्ञात हो कि इस पूरे १ घंटे के दौरान जितनी बिजली की बचत हुई, उतनी बिजली चीन अकेले मात्र दो मिनटों की अल्पावधि में खर्च डालता है, और भारत इससे कुछ अधिक मिनटों में.
अगर ईमानदारी से हम अपने-अपने गिरेह्बानों में झाकें तो पायेंगे कि अर्थ-आवर जैसे वैश्विक स्तर के कार्यक्रमों की सफलता इस बात पर तो निर्भर करती ही है कि उसे कितने राष्ट्रों का सहयोग मिला, पर उससे भी कहीं अधिक इसपर निर्भर करती है कि उसमें कितने लोगों ने अपने-अपने निजी स्तरों पे भाग लिया. तो आईये, जरा पूछें अपने-आप से कि हमने इस कार्यक्रम में कितना योगदान किया और कितना नहीं.
जिस घंटे अर्थ-आवर मनाया जा रहा था, उस वक़्त मेरे घर की बत्तियां बुझी हुई थीं और पंखा बंद था. AC मैं इस्तेमाल करता नहीं, तो उसका सवाल ही नहीं उठता. हाँ, फ्रिज शायद चालु ही छुट गया होगा. पर यह सब ऐसा अर्थ-आवर के उपलक्ष्य में नहीं था, अपितु इसलिए था कि मैं उस वक़्त अपने घर के बाहर किसी निजी कार्य से निकला हुआ था. यदि घर पे होता तो शायद अर्थ-आवर में योगदान करने के बजाय टेलीविजन पर उससे सम्बंधित ताज़ातरीन खबरें देख रहा होता.
ये तो थी मेरी दास्ताँ. पर क्या आपने अर्थ-आवर में भाग लिया? शायद नहीं लिया होगा. अगर लिया होगा तो अति-उत्तम; यदि ना लिया हो तो भी कोई बहुत बड़ा नुकसान हुआ हो, ऐसी बात नहीं है. मगर हाँ, यदि आप अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में एहतियात नहीं बरतते हैं, तो यह अवश्य एक गहन चिंता का विषय है.
ऐसा आखिरकार क्यों है कि हम अर्थ-आवर और ग्लोबल-वार्मिंग की बातें तो बढ़चढ़ कर करते हैं, अखबारों और अन्य पत्रिकाओं में लेख भी जमकर लिखते हैं, मगर जब दिन-प्रतिदिन के आचरण की बात आती है, तो खुद को अत्यंत ही ढीला-ढाला पाते हैं?
फ़र्ज़ कीजिये कि आप घर से बाहर कुछ खरीददारी करने निकलते हैं. ऐसा कितनी बार हुआ है कि आपने अपना कपड़े का झोला साथ में लिया हो? नहीं लेते हैं. हममें से शायद मुट्ठी भर लोग हीं इस नियम का पालन करते होंगे. या फिर यह कि अगर एक कमरे में बैठें हों तो यह सुनिश्चित कर लें कि अन्य कमरों में विद्युत् से चलने वाला कोई यन्त्र अन्यथा ही ना चल रहा हो?
मुंबई में जिस दिन नो होंकिंग डे मनाया गया और इसकी अवहेलना करने वालों को फाइन की चपत लगाईं गयी, उस दिन पुरे शहर में बेवजह बजने वाले हार्नों की मात्रा में आश्चर्यजनक रूप से गिरावट दर्ज की गयी. मगर अगले दिन से वही ढ़ाक के तीन पात. किसी भी लाल-बत्ती पे खड़े हो जाइए, लोग ना तो - अगणित सरकारी, गैर सरकारी विज्ञापनों के बावजूद - अपनी गाड़ियों का इंजन ही बंद करते हैं, और ना ही बेवजह होर्न बजाने से ही बाज आते हैं. अरे भाई, अगर जगह मिलेगी तो आगे वाला आगे बढ़ेगा हीं. जहाँ का तहाँ खड़ा तो रहेगा नहीं. इतनी सी बात भी हमारी समझ में नहीं आती है शायद. या फिर यदि आती है, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी संवेदनात्मक इन्द्रियाँ हीं निष्काम हो गयी हों?
ऐसे में हम अर्थ-आवर मनायें या ना मनायें, कोई फर्क नहीं पड़ता. जब संवेदनशीलता ही शिथिल या निष्काम हो, तो आखिर कोई संवेदना व्यक्त करे भी तो कैसे? मगर यदि ना करें तो उसमें भी नुकसान तो भाई हमारा, आपका या हमारी अजन्मी संततियों का ही है, किसी और का तो है नहीं.
चलिए, मान लिया कि भारत ने अभी-अभी चन्द्रमा पर पानी की उपस्थिति की खोज की है. और इस तथ्य पर विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली देश अमेरिका की अंतरिक्ष अन्वेषण संस्था नासा का ठप्पा भी लग गया है. अनुमान लगाया जा रहा है कि इस सुखद खोज से चाँद पर इंसानों को बसाने का सपना हकीकत के और करीब आ गया है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आप निकट भविष्य में चाँद पर निकल भागने का सपना दिल में संजोये बैठे हैं, और इसीलिए धरती की तकलीफों के प्रति सर्वथा उदासीन हैं?
अगर ऐसा है, तो भई खुदा ही ख़ैर करे. मैं ये नहीं कहता कि भविष्य में इंसान चाँद पर डेरा जमाये नहीं बैठा होगा. अब तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि कुछ भी असंभव प्रतीत नहीं होता. मगर गौर फ़रमाने वाली बात ये है कि यदि आदमी चाँद पर बस भी जाए, तो भी हम और आप वहाँ तक कभी पहुँच भी पायेंगे क्या? आपकी सोच इस विषय में क्या है, मुझे नहीं पता; पर जहां तक मेरा सवाल है, मुझे तो ऐसा कतई नहीं लगता. और लगे भी तो कैसे? भई साहब, हम और आप तो एक ऐसे तबके से आते हैं, जो पेट्रोल-डीजल या रेलगाड़ी के टिकट में ५० पैसे, १ या २ रुपये वाली की गई सर्वथा जायज वृद्धि को ही झेलने का गुर्दा नहीं रखते, और देखते-ना-देखते देश भर में चक्का जाम और हड़तालें कर डालते हैं. चाँद पर बसने के लिए अरबों रुपये की धनराशी लायें भी तो कहाँ से लायें?
तो भई, अगर हम थोड़ा सोचे-विचारें तो पता चले कि इस अनंत ब्रह्माण्ड में अगर हमारा कोई सामूहिक ठिकाना है तो वह हमारी पृथ्वी ही है. धरती है, तो हम हैं. धरती है, तो एक दिन चाँद पर घर बसाने का सपना है. धरती है, तो अनंत अंतरिक्ष के भीतर और इसकी सीमाओं के दूसरी ओर के रहस्यों का एक दिन पर्दाफाश करने का जज्बा है. धरती नहीं, तो कुछ भी नहीं. और भई, इस धरती को तो विश्व की अनेकानेक सभ्यताओं में माता की संज्ञा दी गयी है; माता जो हमें पालती है, पोसती है, जरूरत और ऐशो-आराम की हर वह चीज मुहैय्या कराती है जिसकी ज़िन्दगी को जरुरत होती है. और एक हम हैं, जो उस माता का शोषण करते बाज नहीं आते. क्या हमने अपनी सारी शर्मो-हया की वास्तव में तिलांजलि दे दी है?
तो निष्कर्ष यह है कि अर्थ-आवर या नो होंकिंग डे इत्यादि मनाने या ना मनाने में कोई बुराई नहीं है. गलत तो तब है जब हम अपनी रोज़मर्रा कि आदतों से लाचार हो अपनी छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को ताक पर रख देते हैं और स्वांग ऐसा करते हैं जैसे हमें कुछ ज्ञात ही ना हो. कितना सुखद होगा वह दिन जब मानवता शायद सोते से जागेगी और वसुंधरा के प्रति एक भावपूर्ण रिश्ते की नींव रखेगी!
आखिरकार अर्थ-आवर मनाने का मुख्य उद्देश्य भी तो यही है.
धरती चाँद से - मनायें अर्थ-आवर. ज़िन्दगी भर.
5 comments:
ग्लोबल वार्मिंग पर आपने बहुत ही अच्छी बातें बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में कहीं हैं..
....ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है....मैंने आज आपका ब्लॉग पहली बार देखा..इसके लिए चिठ्ठाजगत और समीर लाल जी का भी आभारी हूँ....वह हर रोज़ अच्छे अच्छे ब्लागों से परिचय करवाते रहते हैं.....
कभी संभव हो तो लुधियाना का रुख भी करिए...
आपका अपना ही...
रेक्टर कथूरिया
रेक्टर साहब .. हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया. समीर लाल जी का आभारी हूँ मैं कि वो मेरे ब्लॉग को अच्छे ब्लोगों में गिनते हैं. आपलोगों की टिप्पणियों से लिखने का प्रोत्साहन मिलता है. पंजाब आज तक कभी गया नहीं, सो मौका मिलने से छोड़ूंगा तो नहीं ही.
साभार,
अभिषेक.
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
राजीव सा'ब, सुझाव के लिए धन्यवाद. Its done.
अजय जी, आपका भी शुक्रिया.
अभिषेक.
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