“सिल्वर
कलर की स्कोडा है। उसे किसी भी हाल में रोकना हैl” - वायरलेस पर संदेश मिलने के साथ-साथ पुलिस हरकत में आ गयी थीl सड़क के किनारे खड़ी गाड़ियों और पैदल लोगों को आनन-फानन में हटा कर रास्ते
को सील कर दिया गया थाl
आज
की रात मौत की रात है .. बेहिसाब ख़ून बहा है आज शहर में .. घटना ऐसी अप्रत्याशित
रही है कि कोई भी इसके लिये तैयार नहीं थाl होता भी कैसे? मौत कभी इस कदर थोक-भाव में शहर में
बरसेगी ऐसा कोई तथाकथित सभ्य समाज सोच भी सकता है भला? .. वह
भी एक ऐसा समाज जिसमें लोग अपनी-अपनी ज़िंदगियों में इस क़दर मशगूल या इस क़दर परेशान
हों कि अगल-बगल रहने वाले बाशिंदों का भी बमुश्किल ही कभी कोई खयाल जेहन से होकर गुज़रता
हो, ऐसे समाज में किसी के पास इस स्तर की अमानवीय हरकत को
अंज़ाम देने की फुर्सत होगी, ऐसा सोचना भी कितना अटपटा सा जान
पड़ता हैl
मगर
इसका क्या करें जो यह हरकत सागर और सरहद पार प्लान की गई हो?
ऐसा
जान पड़ता था मानो शहर का कोई भी कोना आज महफूज़ नहीं है और जो जहाँ है मौत उसे
वहीं से अपने साथ उठा ले जायेगी .. फिर वह कोना कोई बस स्टैण्ड हो, रेलवे स्टेशन हो, रेस्त्राँ
हो, चलती-फिरती सड़क हो या फिर कोई जीवनदायी अस्पताल ही
क्यों ना होl
ऐसा
कतई नहीं था कि मुम्बई पुलिस के इस खुनी खेल से अब तक दो-दो हाथ ना हुये होंl मगर ये कोशिशें फोर्स के संगठित स्तर पर
नहीं थींl जहाँ कहीं अचानक हमला हुआ, वहाँ
उपस्थित सिपाहियों ने या तो अपनी जान बचाते हुये ऊपरी-स्तर के अफसरान को इसकी
इत्तला दी, या फिर जो भी हथियार – दोनाली, सर्विस रिवॉल्वर – उनके पास थे, उन्हीं से
अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकियों का सामना करने की नाकाम कोशिशें कींl ऐसे में इस खबर का मिलना कि आतंकी किस दिशा की ओर, किस
माध्यम से और कितनी संख्या में अग्रसर हैं, एक ऐसा मौका था जिसने
ना केवल पुलिस को एक फर्स्ट-मुवर ऐडवांटेज दिया था, बल्कि
इसे किसी भी हालत में हाथ से जाने नहीं दिया जा सकता थाl
मरीन-ड्राईव
को सील कर पुलिस के जवान अपनी-अपनी बंदूकें ताने धड़कते दिलों से आती स्कोडा का
इंतज़ार कर रहे थेl उनके चेहरों
पर पसरा ख़ौफ उनकी मन:स्थिति को बखुबी बयान कर रहा थाl ऐसे
लोग जो सिर्फ मरने या मारने के इरादों से निकले हों उनका सामना करें भी तो कैसे ..
यह सवाल नाजायज है .. ऐसा कहना सरासर बेमानी होगीl
स्ट्रीट-लाईट
की दूधिया रौशनी में नहाई, सुनसान सड़क
पर अचानक एक अकेली गाड़ी नज़र आती हैl
“सर, स्कोडा है सिल्वर कलर कीl” जैसे ही एक सिपाही यह ऐलान करता है, पहले से सतर्क
पुलिस वाले और भी सतर्क हो जाते हैंl एक अजब सी बेचैनी हवा
में घुलकर वातावरण को मानो कुछ अधिक ही बोझल कर देती है, हर
चीज शांत है .. यहाँ तक कि सड़क के बगल में पसरे अथाह-अनंत सागर में भी आज लहरें नहीं
के बराबर ही हैं .. जैसे आज समुचा शहर शहर ना रहकर सहसा मरघट
में तब्दील हो गया होl
गाड़ी
में सवार लोगों को जब तक इस बात का अंदाज़ा होता कि आगे रास्ता बंद है, गाड़ी ब्लॉकिंग और पुलिस-दल दोनों के काफी
पास आ चुकी होती हैl पल-दो-पल के लिये समय रुक सा गया हो
जैसे .. सुनसान सड़क पर नितांत अकेली गाड़ी अपने सिल्वर रंग
और स्ट्रीट-लाईट की अधिकता के बावज़ुद एक भुतिया अहसास कराती हैl
कुछ
क्षणों तक दोनों पक्ष एक दुसरे को नापते हैं .. कुछ इस तरह मानो जंगल में हिंसक टकराव से पहले एक-दुसरे के लहु के प्यासे
दो खूँखार शेर एक दुसरे का शक्ति-परिक्षण कर रहे होंl फिर
पुलिस की तरफ से उन्हें आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी जाती है .. गाड़ी शांत खड़ी है .. उसमें सवार लोग शायद क्या करना उचित होगा निश्चित
कर रहे हैंl फिर अचानक गाड़ी का इंजन ज़िंदा हो उठता है .. दो
पल को गुर्राता है .. और गाड़ी वापस घुम जाने के मकसद से बैक-गियर में आती हैl गाड़ी में सवार आतंकियों ने खुद को शक्ति-परिक्षण में कमतर पाया है .. मगर
आत्मसमर्पण करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठताl
गाड़ी
घुमती देख फोर्स हरकत में आती हैl उन्हें
सख्त हिदायत है कि गाड़ी में सवार लोग किसी भी हालत में भागने ना पाऐंl बंदूकें गरजती हैंl कुछ मिनटों तक आग उगलने के बाद
एक बार फिर से खामोशी ने अपना साम्राज्य पूर्ववत् स्थापित कर लिया है .. मानो
जैसे कुछ हुआ ही ना हो .. बस हवा में तैरती बारूद की ताज़ा
गंध से हवा कुछ गाढ़ी सी हो चली हैl गोलियों से तार-तार हो
गयी स्कोडा जहाँ थी, ठीक वहीं खड़ी है .. गोलियाँ कुछ इस क़दर
बेतहाशा चली हैं कि उसमें सवार लोगों के ज़िंदा होने की गुंजायिश ना के बराबर ही हैl
मगर फिर भी कुछ क्षण इंतज़ार कर लेना ही बुद्धिमानी जान पड़ती हैl
जब कुछ वक़्त गुजरने के बाद भी कोई हलचल महसुस नहीं होती, तो सिपाहियों का दल आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ी की तरफ बढ़ता है .. बंदूकें अभी
भी गाड़ी की दिशा में सधी हुयी हैं .. आवश्यकता पड़ने पर उन्हें पुन: तत्परता के
साथ हरकत में आना होगा ..
हवलदार
तुकाराम ओम्बले के दरवाज़ा खोलते ही गोलियों से छलनी एक लाश ज़मीन पर जा गिरती हैl अंदर झांककर देखने पर काफी मात्रा में
अस्ला-बारुद नज़र आता हैl स्टीयरिंग व्हील पर जख्मी पड़ा आदमी
मगर अभी भी ज़िंदा है .. इससे पहले कि कुछ भी समझ में आये वह हाथ में थमी बंदुक के
साथ खुले दरवाज़े की ओर पलटता हैl आनन-फानन में तुकाराम उसकी
बंदूक को अपने सीने से चिपका लेते हैं और सारी की सारी गोलियाँ खुद पर ले लेते हैंl
कसाब
मुम्बई-२६/११ का एकमात्र ज़िंदा पकड़ा गया आतंकवादी था ..
मुम्बई-२६/११
पलक झपकते-न-झपकते एक ऐसी अंतरराष्ट्रिय घटना बन गई जिसके सारे तार इस्लामाबाद की
ओर इशारा कर रहे थेl दोनों देशों
के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर चालू हो गया, विभिन्न देशों
द्वारा पकिस्तान की मिट्टी से जन्मी इस वारदात की भर्त्सना होने लगी और
आतंकवादियों को रोकने की कोशिश में जितने भी पुलिस वाले मारे गये थे उन्हें ‘शहादत’ का तमगा लगाकर देशभक्त घोषित कर दिया गयाl
(‘द अटैक्स ऑफ २६/११’ से)
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हाल
में ही रिलीज हुई मुवी ‘मसान’ में पुलिस का एक और चेहरा प्रदर्शित हैl
लड़की
जब अपने ब्वाय-फ्रेंड के साथ बनारस के किसी सस्ते से लौज में अपनी सेक्सुअलिटी ‘डिस्कवर’ कर रही होती
है तो पुलिस की रेड पड़ती हैl पुलिस वाला ‘समझदार’ है .. उसे पता है कि वर्दी का सही इस्तेमाल
शहीद होने के लिये नहीं बल्कि ज़िंदगी का भरसक लुत्फ़ उठाने के लिये और अपनी ज़ेब
गरम करने के लिये किया जाना चाहिये .. शहीद होकर भी भला किसी को कुछ मिला है आजतक
.. ज़िंदगी का मज़ा तो अखिरकार ज़िंदा रहकर ही उठाया जा सकता है ..
सो
किसी भी सरकारी प्रोसिजर को लागू करने से पहले इंस्पेक्टर साहब लड़की की अर्धनग्न अवस्था
की विडिओ क्लिप बनाते हैं और लगते है कन्या के पिताजी को पैसों के लिये ब्लैकमेल करनेl
अगर
देखा जाये और एक साधारण सा भी जनमत करवा लिया जाये तो बात यही निकलकर आयेगी कि
पुलिस का असली चेहरा तो भई ‘मसान’
वाला ही है और जो कुछ तुकाराम ओम्बले जी २६/११ के दिन कर बैठे वह एक
‘ऐबेरेशन’ से अधिक शायद कुछ भी नहीं थाl
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मगर
तुकाराम जी ने ऐसा किया क्यों? क्या वह
सही में एक देशभक्त नागरिक थे? देशभक्ति की बातें भी रहने
देते हैं .. कोई आदमी एक अच्छा इंसान है या बुरा, इसको
आखिरकार किसी एक घटना से निर्धारित कैसे किया जा सकता है? एक
क्षण को अगर ऐसा मान लिया जाये कि तुकाराम जी मुम्बई में ना होकर बनारस की गलियों
में हैं और ‘मसान’ वाला इंस्पेक्टर
तुकाराम जी की जगह मुम्बई में - तो ये दोनों एक-दुसरे की परिस्थितियों में पड़कर
क्या वही नहीं करते जो वास्तव में घटित हुआ?
चलिये, ये भी मान लेते हैं कि बनारस वाली वारदात
को अंजाम देने के लिये और विडिओ बनाकर किसी को ब्लैकमेल करने के लिये अपनी समस्त
इंसानियत को ताक पर रखकर साक्षात हैवान बनना पड़ेगा जो कि हर किसी के लिये सम्भव
नहीं है, पर क्या अगर कोई दूसरा पुलिस वाला तुकाराम जी के
स्थान पर होता तो क्या उसने कुछ अलग ही किया होता? या फिर
क्या ऐसा पूरी सटीकता के साथ कहा जा सकता है कि जो भी पुलिसवाले २६/११ को ज़ख़्मी या
‘शहीद’ हुये और जिन्हें राष्ट्रभक्ति
का तमगा पहनाया गया, वो सारे दूध के धुले हुये थे?
सरहद
पर तैनात फौज़ी जब दुश्मन की गोलियों का जवाब गोलियों से और लाशों का हिसाब लाशों
से चुकता करता है, तो क्या बस
इसलिये कि वह एक सच्चा देशभक्त है जो अपने मुल्क, अपनी
सरजमीं के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने को सदैव तत्पर है?
९० के
दशक की मुवी ‘शूल’ का किरदार इंस्पेक्टर समर प्रताप सिंह जब लोकल पौलिटीशिअन के खिलाफ
लड़ते-लड़ते नितांत अकेला पड़ जाता है, तो थकहार कर एक हवलदार
से पूछता है कि उसने पुलिस की नौकरी क्यों ज्वाईन की थीl जवाब
मिलता है – “साहब, ५-५ बेटियों का बाप
हूँl उनको पालने के वास्ते कुछ तो करना थाl परीक्षा दी और सरकारी नौकरी में आ लगेl”
‘पावर कॉरप्ट्स’ का सिध्धांत हर परिस्थिति में
लागू होता है और दुनिया की कोई भी फोर्स क्या वास्तव में ईमानदार और चरित्रवान हो
सकती है, इसपर बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं हैl पुलिस में कार्यरत कोई अफसर या सिपाही इस क़दर भी ईमानदार होगा कि उसने सिर्फ
और सिर्फ अपने वेतन की खाई हो, इसपर विश्वास करने से मन
अनायास ही विद्रोह करता है, फिर वह चाहे देशभक्ति का तमगा
लगाकर अमर कर दिये गये सिपाही ही क्यों ना हों? अगर कोई
टाईम-मशीन में सवार होकर २६/११ से पहले के कालखण्ड में जाये और इन्हीं शहीदों को
नाजायज तरीके से अपनी जेबें गरम करते पाये तो यह क्या कोई आश्चर्य करने वाली बात होगी?
सेना
के जवान का सरहद पर शहीद होना तो समझ में आता है - अगर सरकरी संस्थानों की बात करें तो आज भी इस देश में सेना वन ऑफ द मोस्ट
रेस्पेक्टेड सरकारी संस्थानों में आती हैl मगर पुलिस तंत्र?
कारण चाहे कोई भी क्यों ना हो – राजनीतिक, सामाजिक,
वगैरा-वगैरा – शायद ही कोई नागरिक इस देश में ऐसा होगा जो
शत्-प्रतिशत यह मानता होगा कि पुलिस उसकी मदद के लिये है ना कि उसे परेशान करने के
लियेl
तो क्या
तुकाराम जी ने जो भी उस दिन कर डाला, वह भावावेश में अथवा ‘ऐड्रेनैलिन रश’ में आकर उठाया गया एक कदम मात्र था? और कुछ भी नहीं?
क्या अगर उन्हें कुछ पलों की भी मोहलत यह सोचने-समझने के लिये मिल
जाती कि उनकी इस हरकत का उनके परिवार पर, उनके
बीवी-बाल-बच्चों पर क्या असर पड़ेगा, तो भी क्या वो वही करते,
जो उन्होंने किया? क्योंकि देश-सेवा में आत्म-प्राणों
की बली दे देना देश, समाज के नज़रिये से एक अच्छा कार्य तो हो
सकता है, मगर पारिवारीक दॄष्टि से इसे शायद ही अच्छा कहा
जायेl भगवान राम की भी एक आलोचना तो आखिरकार यही कहकर की
जाती है ना कि वह एक अच्छे राजा तो थे, मगर एक अच्छे पति या
पिता नहींl अपने बीवी-बच्चों को किसी गैर के कहे में आकर
जंगलों में छुड़वा आना राजधर्म के हिसाब से कुछ भी क्यों ना हो, परिवार-धर्मानुसार कोई अच्छी बात तो कतई नहीं हैl
अगर
उन्होंने अपने परिवार का खयाल करके खुद को कसाब की गोलियों से बचा लिया होता तो
क्या तुकाराम जी एक गलत देशवासी कहलाते? क्योंकि देशभक्ति का तमगा, सरकारी-गैर-सरकारी
पुरस्कार, सम्मान इत्यादि तो आखिरकार क्षणिक और नाममात्र के
ही होते हैंl उनके पीछे छुट चुके परिवार की जिम्मेदारी तमाम
शब्दों, आश्वासनों और वादों के बावज़ुद ना तो किसी सरकार की
बनती है और ना ही उन पुलिसवालों की जिनके हिस्से की गोलियों को भी तुकाराम जी खुद
ही झेल गयेl
और क्या ‘मसान’ का वो हैवान इंस्पेक्टर सही में इस कदर हैवान है जैसा उसे दिखाया गया है? क्या उसके जीवन का कोई दूसरा पहलू नहीं?
इस
संसार में अच्छा कौन है, कौन बुरा,
कहाँ जाकर राम की अयोध्या समाप्त होती है और कहाँ से रावण की लंका
प्रारम्भ – यह निर्धारित करना क्या इतना आसान है? और क्या यह
कहना कि रावण की लंका में अयोध्या जैसा और राम की अयोध्या में लंका जैसा कहीं कुछ
भी नहीं सही में वास्तविकता होगी? अगर अच्छाई का दुसरा नाम
राम है और बुराई का रावण, तो क्या राम सौ प्रतिशत राम थे और
रावण सौ प्रतिशत रावण? जो शख्स सीता के लिये रावण था,
क्या वही शुर्पनखा के लिये राम न था और जो अयोध्या के लिये राम था,
वही सीता को वनवास देते वक़्त उनके लिये रावण नहीं था?
या
फिर शायद यह कहना सही होगा कि राम और रावण हर-हमेशा एक-दुसरे के पूरक रहे हैं और
सदैव संग-संग ही चलते हैं? हमारे द्वारा
राम और सीता की जोड़ी को सर-आँखों पर रखने के बावज़ुद कहीं ऐसा तो नहीं कि असली और
कहीं अधिक मज़बुत, प्रगाढ़ जोड़ी दरअसल राम और रावण की है,
राम और सीता की नहीं?
क्या
इंसान का रंग वास्तव में काला या सफेद होता है या फिर इस दुनिया का हर इंसान ना
केवल इन दोनों रंगों के मध्य कहीं बीच में अपना अस्तित्व पाता है, बीतते वक़्त और बदलती परिस्थितियों के साथ ना केवल
अपना रंग बदलता है, बल्कि एक ही वक़्त में अलग-अलग दिशाओं से
देखने पर राम और रावण दोनों नज़र आता है?
‘कौन है रावण, राम है कौन’ प्रश्न
का उत्तर आखिरकार इतनी सरलतापुर्वक दिया जा सकता है क्या?
दो या एक?
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